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________________ ८३. धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष जीवन के सर्वश्रेष्ठ बल का चमत्कार बताना चाहता हूँ। वह बल है-धर्मबल ! धर्मबल मनुष्य के पास संचित सभी बलों से श्रेष्ठ है । एक ओर शरीरबल हो, धनबल हो, जन-बल हो, बुद्धिबल हो या अन्य किसी भी प्रकार का बल हो, किन्तु दूसरी ओर अकेला ही धर्मबल हो, तो महर्षि गौतम का कथन है 'सव्वं बलं धम्मबलं जिणाई' समस्त बलों को धर्मबल जीत लेता है। यानी धर्मबल समस्त बलों में श्रेष्ठ है। गौतमकुलक का यह ६९वां जीवन-सूत्र है। दूसरे बलों में और धर्मबल में क्या अन्तर है ? धर्मबल उन सब पर कैसे विजयी हो जाता है ? आइए, इन सब पहलुओं पर गहराई से चिन्तन करें। बल : सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक मानव-जीवन के अथ से इति तक बल की तो आवश्यकता पद-पद पर रहती ही है । जो बच्चा जन्म से निर्बल, रुग्ण या अशक्त होता है, वह माता-पिता के लिए चिन्ता का कारण बन जाता है, पद-पद पर उसकी सँभाल रखनी पड़ती है । उस बालक का शारीरिक विकास ही नहीं रुकता, बौद्धिक और मानसिक विकास भी रुक जाता है। ऐसे बच्चे दीर्घायु भी नहीं होते। इसी प्रकार बचपन, जवानी, प्रौढ़ता या बुढ़ापा किसी भी अवस्था में निर्बलता, चाहे वह किसी भी प्रकार की हो-शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या आत्मिक-उसके कारण हर हालत में उसका विपरीत परिणाम भोगना पड़ता है । निर्बल व्यक्ति अपने प्राकृतिक और जन्मसिद्ध अधिकारों से समुचित लाभ नहीं उठा सकता। निर्बलता में प्रायः स्वास्थ्य खराब हो जाता है और स्वास्थ्य खराब होने पर मन्दाग्नि, अपच आदि रोग खड़े हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को कोई भी मनोरंजन, मधुर गीत-वाद्य, धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधाएँ आदि नहीं सुहातीं। बलवानों के लिए सहायक सिद्ध होने वाले तत्त्व निर्बलों के लिए घातक बन जाते है । सर्दी शक्तिशाली के लिए स्वास्थ्य, बल और सक्रियता बढ़ाने वाली है, जबकि निर्बलों के लिए यही सर्दी जुकाम, ज्वर से लेकर निमोनिया और गठिया जैसे रोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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