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________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : १५ नहीं है तो वह कला जीवन को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। उन कलाओं से कलाकार का जीवन उन्नत और बन्धन मुक्त नहीं हो सकता । इसीलिए किसी विद्वान् ने कहा है बावत्तरिकलाकुसला पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवर, जे धम्मकलं न जाणंति ॥ "बहत्तर कलाओं में कुशल पण्डित पुरुष भी अपण्डित ही हैं, अगर वे सभी कलाओं में श्रेष्ठ धर्मकला को नहीं जानते ।" दूसरी सुकलाओं से युक्त जीवन खान में से तुरन्त निकाले हुए हीरे सरीखा होता है । खान में से जब हीरे का पत्थर निकाला जाता है, तब वह चकमक पत्थर से अधिक अच्छा नहीं लगता। वह उस समय बहुत ही कठोर होता है। इस पर से जाना जाता है कि यह हीरा है। परन्तु जब कोई सहृदय कलाकार कारीगर उसे घिस-घिसकर पहलदार बना देता है, तब उसका आकार आकर्षक हो जाता है, उसकी चमक-दमक बढ़ जाती है, उसकी कीमत भी अनेकगुनी बढ़ जाती है । होरे की कीमत उसकी कान्ति के अधिकाधिक निखार पर निर्भर है । यही बात हम मानवजीवन के सम्बन्ध में समझ सकते हैं। __ मानव-जीवन पुण्य प्रकृति की अनुपम देन है, परन्तु वह अन्यान्य कलाओं के जानने-सीखने या जीवन-कलाओं का अभ्यास करने मात्र से ही निखर नहीं जाता, उसमें चमक नहीं आ जाती, जब धर्मकला आती है, तभी वह जीवन को बहुमूल्य बना देती है, उसकी चमक-दमक बढ़ा देती है, उस जीवन की उपयोगिता बढ़ जाती है। जीवन को कृतार्थ करने को कला का नाम ही धर्मकला है। धर्मकला जितनी ऊँची होगी, उतने अंश में जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य, मांगल्य, उपयोगिता, सर्वतोभद्रत्व आदि बढ़ेंगे। जो कलाकार कुशल न हो, धर्मकला की समझ और आचरण न हो तो जीवनरत्न का दुरुपयोग भी हो सकता है। धर्म के इतिहास से इस बात का पता लग सकता है । इसलिए एक आचार्य ने कहा है-- सकलाऽपि कलावतां विकला धर्मकलां विना खलु । सकले नयने वृथा यथा, तनुभाजां हि कनीनिकां विना ॥ - कलाओं में कुशल और कार्यदक्ष मनुष्यों के पास धर्मकला न हो तो वे सब कलाएँ विकला हैं, नाममात्र की हैं, चावल के छिलकों जैसी हैं। जैसे आँख की कीकी के बिना आँख व्यर्थ है, धार के बिना तलवार निकम्मी है, वेग-स्फूर्ति के बिना घोड़ा निकम्मा है, सुगन्धरहित फूल व्यर्थ है, वैसे ही धर्मकला से रहित कलाएँ निकम्मी हैं। जीवन में धर्मकला जब आ जाती है तो वह व्यक्ति सारे जीवन को धर्म के रंग से रंग देता है, प्रत्येक विचार, प्रवृत्ति, वचन और कार्य में वह धर्म-अहिंसा-सत्यादि शुद्ध धर्म के स्वरूप की जाँच करता है, धर्म के सिद्धान्तों को यथाशक्ति आचरण में लाता है, धर्मशास्त्रों के वचनों को अनुभव की कसौटी पर कसता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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