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________________ १४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ एक व्यक्ति दान करता है, या परोपकार के कार्य करता है, किन्तु उसके पीछे या तो कोई स्वार्थ या लोभ है, या फिर कोई लौकिक कामना है, तो वहाँ कलामय जीवन होने पर वह कार्य बन्धनमुक्तिकारक नहीं माना जा सकता। आजकल लोग अहिंसा, सत्य आदि व्रतों या तप, जप, नियम का पालन करते हैं, किन्तु उसके पीछे इहलौकिक या पारलौकिक फलाकांक्षा होती है, तो वे जीवन को उत्कृष्ट कलायुक्त नहीं बना पाते । कई लोग जीवन को कलात्मक बनाने का प्रयास करते हैं, परन्तु कला आज व्यवसाय बन गयी है। उनमें वह कला सहजभाव से निःस्वार्थ रूप से समुद्भूत नहीं होती । कला के साथ वे पैसे का सम्बन्ध जोड़ते हैं । वे कम से कम श्रम करके, अधिक से अधिक अर्थलाभ प्राप्त करना चाहते हैं । वे अर्थशास्त्र की दृष्टि से सभी कार्यों को तौलते हैं, जीवन-शास्त्र की दृष्टि से नहीं। परन्तु से भारतीय जनता के संस्कार धर्णपरायण होने से वे युक्तियों के आगे टिक नहीं पाते । उन्हें कोई कहे कि घर में भोजन बनाने में अधिक समय जाता है, अतः सामूहिक भोजनालय में जाकर क्यों नहीं खाते? क्यों नहीं, उतना समय बचाकर अधिक कमाई करते ? इसी प्रकार के और भी प्रश्न हैं। विवाहित की अपेक्षा अविवाहित रहने और चाहे जिस स्त्री से सहवास करके सन्तान आदि के पालनपोषण की खटपट से बचना, अर्थशास्त्र की दृष्टि से भले ही ठीक हो पर नीतिशास्त्र और जीवनशास्त्र की दृष्टि से यह बात कोई भी स्वीकार नहीं करेगा । एक ब्राह्मण से कोई कहे कि तुम्हें चार हजार रुपये देंगे, तुम अपना ब्राह्मणत्व छोड़ दो। क्या वह इसे कबूल करेगा? कदापि नहीं, क्योंकि जीवन-शास्त्र की दृष्टि उसको रग-रग में भरी हुई है। जीवन के यथार्थ मूल्य पैसे से नहीं खरीदे जाते। शान्ति और शुभेच्छा कहीं बिकती नहीं हैं । ये सब निःस्वार्थ निष्काम गुण उत्कृष्ट जीवनकला वाले व्यक्ति में होते हैं। तीसरी दृष्टि : धर्मकला से ओतप्रोत तीसरी और उत्कृष्ट दृष्टि धर्मकला से ओतप्रोत होती है। वह प्रत्येक कार्य में शुद्ध, निष्कांक्ष, निःस्वार्थ धर्म के गज से नापी जाती है। गौतम महर्षि ने इसीलिए पहले बताई हई सभी कलाओं से उत्कृष्ट धर्मकला को बताया है। एक पाश्चात्य विचारक ब्लैकी (Blaikie) ने उत्कृष्ट कला के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट करते कहा है "The highest art is always the most religious and the greatest artist is always a devout man.” 'सबसे उत्कृष्ट कला सदैव अत्यधिक धर्मयुक्त होती है और सबसे बड़ा कलाकार सदा परमात्मभक्त होता है ।' कोई पूछ सकता है कि क्या अन्य कलाएँ जीवन को उत्कृष्ट नहीं बना सकतीं ? इसके उत्तर में यही कहना है कि यदि अन्य ललित कलाएँ किसी के जीवन में हैं परन्तु उसके साथ धर्मनिष्ठा नहीं है, मुख्यतया धर्मदृष्टि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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