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________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८५ मनुष्य का नहीं।" कसाईखाने की बेहद गंदगी, मल-मूत्र एवं रक्त से होने वाला कीचड़, हड्डी एवं मांस के बिखरे हुए लोथड़े आदि देखकर किस मांसाहारी का हृदय नहीं कांप उठेगा ? टाल्स्टाय अपनी पुस्तक 'संस्मरण और निबन्ध' में लिखते हैं- "कुछ समय पूर्व मैंने तुला के एक कसाईखाने को देखने और अपने एक विनम्र और दयालु मित्र से मिलने का निर्णय किया। मैंने उन्हें अपने साथ चलने का आमंत्रण दिया। मेरे मित्र ने अस्वीकार करते हुए कहा वह पशुओं का कत्ल होते हुए देखना सहन नहीं कर सकता।' विशेष ध्यान देने की बात यह है कि वह खिलाड़ी है और स्वयं पशुओं और पक्षियों को मारता है।" ___ कसाईखाने का दृश्य ही क्यों, अगर कोई विचारशील मानव किसी निर्दोष प्राणी को मारते-काटते. छटपटाते और वध करते देख ले और संवेदनशील होकर विचार करे तो उसकी आत्मा मांसाहार करने से इन्कार कर देगी, उसका हृदय कांप उठेगा, उस निरीह प्राणी की हत्या देखकर । बौद्धधर्म के प्रसिद्ध दलाई लामा वर्षों से मांसाहार करते थे, जबकि तथागत बुद्ध की शिक्षा है-किसी भी जीवित प्राणी की हिंसा न करो, न कराओ। किन्तु सन् १९६५ के भारत-पाक युद्ध के समय जब वे वसन्त ऋतु में भारत के दक्षिणी राज्यों का दौरा कर रहे थे, उस समय मोटर से शहर और कस्बों को पार करते हुए उन्होंने शक्तिभर भागते हुए मुर्गों, बिल्लियों और कुत्तों को देखा, मानो वे मृत्यु के भय से आशंकित हों। उसी समय उनके मन में एक विचार आया कि मृत्यु एक पीड़ा है; जो हरएक प्राणी को होती है। इन्हीं दृश्यों से उनके मन में दया और सहानुभूति भी भावना उमड़ी। आगे जब वे केरल पहुँचे और वहाँ पड़ाव किया तब उन्हें किसी के भोजन के शिष्टाचार के लिए मुर्गे की हत्या अपनी आँखों से देखनी पड़ी। उस समय अपने हृदय की हलचल को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं-"निर्दोष मुर्गे द्वारा अनुभूत भयंकर भय, पीड़ा और अत्याचार को भयंकर रूप में महसूस करना भी कठिन था। जीवन सभी को प्रिय होता है । उस गरीब और असहाय पक्षी ने कैसा भय और संताप सहा, जब उसका जीवन नष्ट किया जा रहा था। मैं यह सोचकर ही कॉप जाता हूँ। उसी समय मैंने किसी का जीवन न लेने की नैतिक महत्ता की सम्पूर्ण क्षमता को कठोर वास्तविकता और सर्वांगीण गंभीरता के साथ महसूस किया। मैं मार दिये गए मुर्गे के प्रति करुणा और दया से व्याकुल था । दूसरी बात-जिसके कारण मैं मांसभोजन से दूर हुआ, इस तथ्य की जानकारी से कि जहाँ-जहाँ भी हम जाते हैं, उस स्थान विशेष के मेजवान विशेष रूप से मेरे दल के सदस्यों के भोजन के लिए ही मुर्गों और भेड़ों का वध करते हैं। निःसंदेह यह मेरे सन्तोष के लिए शुभेच्छा से ही किया जाता था, मगर मैं मुर्गा खाना सहन न कर सका, जिसे विशेष रूप से मेरे ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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