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________________ ३१८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ में ओतप्रोत रखती हैं। मनुष्यों के अनेक हित होते हैं, विभिन्न इच्छाएँ, रुचियाँ, दृष्टियाँ और क्षमताएं-योग्यताएँ होती हैं, साथ ही परस्पर विरोधी आवश्यकताएँ भी होती हैं, उन सबको संगृहीत करके उन सबमें समन्वय व सामंजस्य स्थापित करके, विभिन्न अपेक्षाओं से समुच्चय रूप में प्रस्तुत कर देना धर्म का उद्देश्य है । साथ ही धर्म विविध देशकालानुसार विभिन्न रुचि एवं मान्यता के अनुसार जो परम्पराएँ, प्रथाएँ या त्रियाएँ, उपासना-विधियाँ आदि हैं उन सबको अपने में समाविष्ट करके विभिन्न अपेक्षाओं से समन्वय स्थापित करता है। धर्म विभिन्न दर्शनों और विचार-धाराओं का संगम भी है । धर्म सिद्धान्त उन सभी आध्यात्मिक विचारधाराओं एवं सत्यों को मान्य करता है जो आत्मा के केन्द्र में रखकर प्रचलित की गई हों। धर्म कहता है-जीवन एक और अखण्ड है, इसके आध्यात्मिक, व्यावहारिक, लौकिक, पारलौकिक आदि खण्ड वास्तविक नहीं हैं, केवल समझने की दृष्टि से इनके भेद भले ही किये जाएं। अर्थ, काम, राजनीति आदि व्यावहारिक प्रवत्तियाँ, धर्म के साथ ही रहती हैं, पृथक् नहीं। धर्म कोरा आध्यात्मिक वाद या अलग-थलग पदार्थ नहीं है । भक्ति और मुक्ति परस्पर विरोधी नहीं है। दैनिक जीवन के सामान्य व्यवहार भी धर्म के प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं । धर्म अर्थ,काम, समाजनीति, राजनीति, दैनिक व्यवहार आदि पर अपना आध्यात्मिक नियंत्रण रखता है और इस प्रकार वह अर्थ, काम, राजनीति, समाजनीति आदि व्यवहार मार्ग पर चलने वाले विभिन्न कोटि के व्यक्तियों के लिए शरण्य (शरणयोग्य) सिद्ध होता है, और प्रेरक-नियामक भी । धर्म की शरण इन सबके लिए ग्राह्य एवं अनिवार्य इसलिए होती है, कि धर्म की शरण लेने पर वह इन्हें माता-पिता की तरह शुद्ध मार्गदर्शन करता है, पवित्र रखता है, विश्वसनीय बनाता है, लोकभोग्य एवं उपादेय भी बना देता है । इसके अतिरिक्त जिस किसी वर्ग एवं श्रेणी का व्यक्ति धर्म की शरण ग्रहण करता है, धर्म उसके मन, इन्द्रियों, हृदय, बुद्धि और आत्मा को पवित्र, उच्च, शुद्ध और पापताप से रहित, निश्चिन्त, निर्दोष एवं सात्त्विक बना देता है। धर्म उन्हें शुद्ध अथवा शुभ यानी मुक्ति-पथ अथवा पुण्य-पथ की ओर मोड़ देता है। धर्म की शरण में आने पर मनुष्य की सभी सांसारिक आसक्तियाँ, अशुद्ध कामनाएँ, गहित वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, वह निरंजन, निराकार, शुद्धात्मस्वरूप, विदेहमुक्त अथवा जीवन्मुक्त वीतराग प्रभु के रंग में उसे रंग देता है। उसे जन्म-मरण के दुःखों को समाप्त करने की प्रेरणा देता है। पतिता आम्रपाली धर्मशरण लेकर पावन बनी बौद्धजगत् में आम्रपाली गणिका का नाम प्रसिद्ध है। वह वैशाली के राजा महासमन की पालित पुत्री थी। उनके ही राजमहल में उसका पालन-पोषण हुआ था। यौवनवय में उमका रूप-लावण्य चमक उठा । नृत्य, गीत, वादन आदि कलाओं में भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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