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धर्म ही शरण और गति है : ३१६
वह पारंगत हो गई थी । उसके एक स्मित पर हजारों राजा, महाराजा एवं राजकुमार हजारों स्वर्णमुद्राएँ न्योछावर करने को तैयार रहते थे । इतना अद्भुत आकर्षण था, उस नारी में । इसी कारण वह विपुल सम्पत्ति का और अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग करती थी । मगध, वैशाली, कौशाम्बी, कौशल, अवन्ती आदि के अनेक राजा उस पर आकर्षित एवं मुग्ध थे । परन्तु राजा महासमन के देहावसान बाद आम्रपाली विषयभोगों से विरक्त-सी हो गई थी, उसे अब शृंगार आदि में कोई रस न रहा ।
एक बार तथागत बुद्ध वैशाली पधारे और आम्रपाली गणिका के आम्रवन में ठहरे । आम्रपाली उनके दर्शनार्थ आई । उनकी प्रसन्न शान्त मुद्रा देख अम्रपाली शान्त एवं स्वस्थ हुई । उपदेश सुना तो हृदय आनन्द बुद्ध के चरणों के आगे साष्टांग प्रणाम करके झुक गई।
से
उछल उठा । वह तथागत तथागत ने उसकी चंचलता
आम्रपाली ने स्वस्थ होकर
शान्त देख वरदहस्त ऊँचा करके कहा - 'उठ, सन्नारी ! क्या इच्छा है तेरी ?" कहा - "देव ! मेरी इच्छा है कि आप संघसहित कल इस तुच्छ नारी के यहाँ भिक्षा के लिए पधारें। मैं बड़ा आभार मानूंगी।" तथागत ने कुछ क्षण मौन रहकर उसे स्वीकृति दे दी ।
इसके पश्चात् वैशाली के अनेक धनाढ्य युवक, प्रौढ़ तथागत बुद्ध के पास भोजन का आमन्त्रण देने आए; किन्तु उनके आमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया । सबने चाहा कि किसी भी प्रकार से बुद्ध आम्रपाली गणिका का आमन्त्रण अस्वीकार कर दें । उन्होंने तर्क, बहस, प्रलोभन, मनुहार आदि सब कुछ किया, पर बुद्ध ने उनका आमन्त्रण स्वीकार न किया । दृढ़ शब्दों में कहा - "तुम सारा वैशालीनगर भी भेंट कर दो, तो भी मैं आम्रपाली के आमन्त्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता ।" दूसरे दिन प्रातः काल तथागत बुद्ध अपनी भिक्षुकमण्डली सहित आम्रपाली के यहाँ भिक्षा के लिए गये । उनका अपूर्व स्वागत किया गया । भिक्षाग्रहण करने के बाद बुद्ध ने आम्रपाली से पूछा"शुभे ! क्या इच्छा है अब तेरी ?"
आम्रपाली बोली --- "भंते ! मैं धर्म, बुद्ध और संघ की शरण ग्रहण करती हूँ । मैं अपने बाग-बगीचे, प्रासाद, वस्त्राभूषण आदि सब संघ को समर्पित करती हूँ । मुझे भिक्षुणी बना दें ।" 'तथास्तु' कहकर बुद्ध ने भिक्षु आनन्द को आज्ञा दी भिक्षुणी बनाने की । आम्रपाली अब पतित से पावन बन गई थी, धर्म की शरण में जाने पर । उसके मन में सौन्दर्य का जरा भी गर्व न था, न ही सुख-वैभवों की याद थी । एकमात्र धर्म को ही वह अपने मन में संजोए हुए थी ।
धर्मशरण : सर्वदुःखहरण
इस दृष्टि से धर्म सदा के लिए शरणागत प्रतिपालक तो है ही, इसके अतिरिक्त भी वह शरणागत के जीवन को सार्थक बन्धनमुक्त एवं सर्वांगरूप से विकसित भी
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