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________________ १८६ : मानन्द प्रवचन : भाग १२ ११. धार्मिक अन्धविश्वास-एक ओर हमारे यहाँ शिक्षा में दिन-दूनी रातचौगुनी प्रगति हो रही है, दूसरी ओर धार्मिक अन्धविश्वास अभी उतनी ही संख्या में खंभ ठोककर खड़े हैं । धर्म के नाम से सारे संसार में कई अन्धविश्वास प्रचलित हुए हैं ; जो कि नारी के शील की बलि पर प्रगतिशील थे। ईसा से पूर्व पाँचवीं सदी में बाबल के लोगों की देवी माईलिट्टा के मन्दिर में प्रत्येक स्त्री को अपने जीवन में एक बार आकर अपने आपको उस परदेशी पुरुष को समर्पण कर देना पड़ता था, जो देवी की गोद में सबसे पहले भेट स्वरूप पैसा फेंकता था। कालान्तर में यह धार्मिक अन्धविश्वास भी प्रचलित हो गया कि देवी-देवता के पुजारियों के साथ सम्भोग करने से स्त्री को बाँझ होने का भय नहीं रहता है । देव-पूजा से सम्भोग पवित्र हो जाता है, यह मान्यता भी थी। __ दक्षिण भारत के देव-मन्दिरों में माता-पिता जिन कन्याओं को बचपन से चढ़ा जाते, वे देवता के साथ विवाहित-देवदासियाँ मानी जाती थीं। वहीं वे बड़ी होती । इनका मुख्य काम देव-प्रतिमा के सम्मुख नाचना होता था। इनमें से कुछ सुन्दर स्त्रियाँ पुजारियों के व्यभिचार की सामग्री होतीं। शेष देवदर्शनार्थ आये हुए यात्रियों की कामवासना पूरो करके जीवन निर्वाह करतीं। उदयपुर के पास 'एकलिंगजी' का मन्दिर है, जिसके महन्त को महाराणा की वंश परम्परा से यह छूट दे दी गई थी कि मेवाड़ में जो भी पुरुष विवाह करके अपनी पत्नी लाए, उसकी पहली रात-सुहागरात-महन्तजी की सेवा में मनाई जाए। अर्थात् उसका पति सबसे पहली रात को महन्तजी के पास अपनी पत्नी को भेजे । महन्तजी उसका उपभोग कर लें, उसके बाद उसका पति उपभोग करे। महन्तजी द्वारा उस नववधू का उपभोग करने का अर्थ होता था - एकलिंग महादेव द्वारा उसका उपभोग। यह धार्मिक अन्धविश्वास कई वर्षों तक चला । अन्त में, किसी तेजस्वी नववधू ने इसका प्रबल विरोध किया, महाराणा के आगे पुकार की तब से यह परस्त्रीगमन के कुचक्र की कुप्रथा बन्द हुई। फिर भी वैष्णव सम्प्रदाय की विभिन्न गद्दियों के गुसाइयों को कई भावुक एवं अन्धविश्वासी महिलाएँ कृष्ण का प्रतिनिधि मानकर आज भी स्वयं गोपिका के रूप में देह समर्पण करतो हैं । गुप्त रूप से यह व्यभिचार-लीला कई जगह महन्तों, पण्डों, पुजारियों, मठाधीशों आदि में चलती है। बहुत-से लोग तीर्थस्थानों पर अपनी स्त्री को दान कर देते हैं। फिर कुछ रुपये देकर उसे मोल ले लेते हैं। इस मूर्खता के कारण कई बार पण्डे किसी सुन्दरी स्त्री को वापस देने से इन्कार कर देते हैं। स्त्री जाति के लिए यह कितनी अपमानजनक बात है ! जानबूझकर पण्डों द्वारा होने वाले परस्त्रीगमन के पाप को प्रोत्साहन देना, कितना भयंकर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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