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________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३३५ चोथे प्रकार के लोग मिट्टी के गोले के समान हैं। मिट्टी का गोला आग में डालते ही क्रमशः कठिन होता जाता है। जैसे-जैसे अग्नि विशेष प्रज्वलित की जाती है वैसे-वैसे वह मिट्टी का गोला अधिकाधिक पक्का और मजबूत बनता जाता है । वैसे ही कई लोग जो धर्मनिष्ठ होते हैं । उस पर जैसे-जैसे अधिक दुःख आ पड़ने लगता है, वैसे-वैसे वह धर्म के प्रति अधिक श्रद्धालु, जागृत और मजबूत बनता जाता है । वह अधिकाधिक धर्माचरण करने लग जाता है और आत्मानन्द में मस्त रहता है । धर्म के प्रताप से वह आतरौद्रध्यान छोड़कर धर्मध्यान में संलग्न रहता है । जप-तप, त्याग, व्रत-नियम आदि धर्म क्रियाओं को अधिक उत्साह से करने लगता है । एक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात को स्पष्ट कर दूं--- ___ एक सेठ था, वह सब प्रकार से सुखी था। उसे सुशील और समविचार वाली धर्मपत्नी मिली थी। उसके यहाँ व्यापार के जरिये धन-वैभव खूब ही बढ़ता जाता था। उनके घर को दो वर्ष का पुत्र चन्द्रभान और पाँच वर्ष की पुत्री चन्दनबाला, अपनी बालक्रीड़ाओं से प्रसन्न और आह्लादित करते थे। सांसारिक दृष्टि से जिन्हें आप सुख कहते हैं, वे सभी सुख उनके यहां विद्यमान थे। सेठ-सेठानी इस लौकिक सुख-सम्पन्नता को सद्धर्म का ही प्रसाद मानते थे। दोनों की दृढ़ मान्यता थी कि धर्म के प्रताप से ही लौकिक और लोकोत्तर सभी प्रकार के सुख मिलते हैं । इस श्लोक के अनुसार उनका मन्तव्य था"धर्म पालय । जिनं समाराधय । भिक्षुकानन्दय । धर्म एव प्लवः मान्यः।" "अर्थात्-सद्धर्म का पालन करो, जिनेन्द्र भगवान् की आराधना करो, याचकों और जरूरतमन्दों को उनकी अनिवार्य आवश्यकतानुसार वस्तु देकर सन्तुष्ट करो । धर्म संसारसागर को पार कराने-तारने में वे नौका-समान है । दूसरा कोई भी साधन धर्म की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म ही सभी सुखों का दाता है । वे अपनी अन्तरात्मा को प्रतिक्षण यही समझाया करते थे मेरी जान धर्म चित्त धर रे, नादान धर्मचित्त धर रे, सुज्ञान धर्म चित्त धर रे, धर्म है मुक्ति का दाता, धर्म से होती सुख-साता॥ एक दिन धर्मशीला सेठानी विचार करने लगी—'ये बालक किसी पूर्वपुण्योदयवश इस सुखी घर में आये हैं, परन्तु इनका पुण्य कितना है ? वह कहाँ तक टिकेगा ? इनका हमें पता नहीं है। अगर हमें अपनी सन्तानों के प्रति सच्ची लगन हो तो हमें उनमें धर्म के संस्कार डालने चाहिए । अगर हम अपने बालकों को धर्म-संस्कार नहीं देंगे तो हम उनके परम शत्र कहलाएँगे । कहा भी है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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