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________________ चोरी में आसक्ति से शरीर-नाश : १७७ हुडिक चोर कहीं से मथुरा नगरी में आया और वहाँ गुप्त रूप से चोरी करने लगा। एक बार वह किसी व्यापारी के घर में सेंध लगाकर बहुत-सा सोना चुराकर भागने लगा। घर के लोग जाग गए। उन्होंने हल्ला मचाया। कोतवाल को खबर दी, उसने चारों ओर घूमकर हुडिक चोर को धन सहित पकड़ा। प्रातः काल होते ही सिपाहियों ने उसे मथुरानरेश शत्रुमर्दन के समक्ष पेश किया; उसके द्वारा की गई चोरी का वृत्तान्त सुनाया। राजा ने सब कुछ सुनकर फैसला दिया"यह सारे जगत् का शत्रु है, अतः इसे विडम्बित करके मार डालो।" कोतवाल ने नीम के पत्तों की माला, सकोरों की माला तथा जूतों की माला उसके गले में डालकर वध्य मण्डन से मंडित किया। सड़े हुए पुराने सूप का छत्र किया, चुराया हुआ धन उसके गले में बाँधा, काला मुंह करके उलटा मुंह करके गधे पर बिठाया। और ढोल बजाकर तमाम बाजारों और चौराहों पर यों घोषणा करते हुए घुमाया-"इस हडिक चोर ने बड़ी-बड़ी चोरियां की हैं। अतः इसे मृत्युदण्ड दिया गया है, इसलिये कोई चोरी न करना। राजा चोरी करने वाले के अपराधों को क्षमा नहीं करेंगे।" यों कहते हुए वे लाठी और मुक्कों से उसे मारते हुए वध-स्थल पर ले गये। कितना करुण दृश्य था ! फिर उसे शूली पर चढ़ाया गया। राजा की आज्ञा थी कि कोई उसे मदद न करे; जो मदद करेगा, उसे भी वही दण्ड दिया जाएगा। यह है-चोरी से शरीरनाश का ज्वलन्त उदाहरण ! श्री त्रिलोक काव्य संग्रह में चोरी के दारुण दुःखों का वर्णन करते हुए कहा है चोरी करे परद्रव्य को दुरातम, जाणत लोक मारे तस घाई। राज दण्डे, खोड़ा बेडी में देत है, सज्जन लाजत लोक भंडाई॥ पावे भवोभव सो दुःख आतम, सार करे नहीं सज्जन भाई। अन्य को धन अंगारा-सो लेखत, कहत तिलोक न हाथ लगाई ॥४७॥ चोरी से इससे भी भयंकर रूप से शरीरनाश कैसे होता है ? इसके लिए एक प्राचीन ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए तक्षशिला का प्रियंवद बढ़ाई सभी तरह से सुखी और सम्पन्न था। वह रथकार था। नगरी के कोट के पास ही उसका विशाल भवन था। एक बार उसके यहाँ बाहर के चार खू ख्वार चोर रात्रि-निवास के बहाने आ गये । प्रियंवद ने चोरों की आवभगत की, ठहराया। बात-चीत के सिलसिले में प्रियंवद के हृदय में धन-लोभ जागा और अशुभकर्मोदयवश वह उन चारों चोरों को नगरी के सबसे बड़े धनिक लाला करोड़ीमल के यहाँ चोरी करने ले गया। मकान की दीवार में सेंध लगाई, पर दीवारों में तख्ते जड़े हुए थे, उन्हें काटने का बीड़ा प्रियंवद बढ़ई ने उठाया। अशुभकर्मोदयवश उसने तख्ते करवत के दाँतों की तरह सूर्य किरणों की तरह गोल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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