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________________ १७६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ___ मान लो, मनुष्य-शरीर नष्ट नहीं हुआ, किन्तु अंगभंग हुआ, या घायल हो गया, अथवा बार-बार जेल आदि में यातनाएँ मिलीं, क्या ऐसी शारीरिक और मानसिक पीड़ा के समय मनुष्य-शरीर से वह धर्मध्यान कर सकता है ? धर्मध्यान तो क्या, वह प्रायः आर्तध्यान करेगा या रौद्रध्यान करेगा। रात-दिन चिन्ता, शोक, रुदन, विलाप, कराह, आर्तनाद आदि के रूप में आर्तध्यान करके वह नाना प्रकार के अशुभ कर्मों का बन्धन करेगा, तथा उस भयंकर यातना दिये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप वह दूसरों को नीचा दिखाने, हत्या करने, पीड़ित करने या उसके घर में चोरी, डाका इत्यादि उपद्रव करा देने, ठगी करने, षड़यन्त्र रचने आदि के रूप में वह रौद्रध्यान भी कर सकता है। इन दोनों ही कुध्यानों से वह भयंकर दुष्कर्मबन्धन कर लेगा। चोरी से शरीरनाश किस-किस रूप में होता है ? इसकी जानकारी के लिए प्रश्नव्याकरणसूत्र साक्षी है। मैं संक्षेप में उसका भावार्थ समझाता हूँ-धन की टोह में चोर लोग समय-कुसमय का, गम्य-अगम्य स्थानों का कोई विचार नहीं करते, श्मशान आदि भयंकर एवं गन्दे स्थानों में घूमते हैं । सूने मकानों में, पर्वतगुफाओं में, सर्पादि के बिलों तथा हिंस्र जानवरों से युक्त घोर जंगलों में रहते हैं । सर्दी-गर्मी आदि का भयंकर कष्ट सहते हैं। भूख-प्यास आदि भी सहनी पड़ती हैं, कंदमूल, मुर्दे का मांस या अन्य जो भी खाने की चीज मिल जाए खा लेते हैं। न सोने का ठिकाना, न रहने का । रात-दिन पकड़े जाने का भय, चिन्ता, थकान, दौड़-धूप, रोग, परिवार का वियोग आदि कष्ट सहने पड़ते हैं। इन शारीरिक कष्टों के अतिरिक्त पकड़े जाने जाने पर उन्हें सारे नगर में बेइज्जती करके घुमाया जाता है, जेलों में भयंकर यातनाएँ दी जाती हैं, मृत्युदण्ड भी दिया जाता है। यह तो इहलौकिक शरीरनाश का वर्णन है। परलोक में नरक गति के भयंकर कष्टों का तो कहना ही क्या ? यहाँ के शरीर-नाश से अनन्तगुना शरीर-नाश वहाँ होता है । इस प्रकार के शरीर-नाश को देखते हुए कौन कह सकता है कि चोरी सुखशान्तिदायक लाभदायक धन्धा है ? सिर्फ थोड़े-से क्षणिक धन-लाभ के बदले में कितनी भयंकर हानियाँ उठानी पड़ती हैं ? यह प्रत्येक धर्मप्रेमी जानता है। श्री अमृतकाव्य संग्रह में चोरी के दुष्परिणामों का निरूपण करते हुए कहा हैचोर चित्त चिन्त चौक बसी हो रहत भीत, परधन देखि के हरण चित्त चहे है। माल धनी देखी होय कुपित पीटत ग्रही, मारे शस्त्र घाव वध-बंध दुःख लहे है। नप कोप तोप से आरोप के हरे है प्राण, __ मरि के सिधावे यमलोक दुःख सहे है। कहे अमीरिख दुःखदाता है व्यसन यातें, समझि विवेकी त्यागी ज्ञान उर गहे है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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