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________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश: १५५ प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है । एक बार नगर के देवमन्दिर में कोई उत्सव था, प्लेटो भी आमन्त्रित थे । नागरिकों के प्रेमाग्रह को वे न ठुकरा सके । उत्सव में सम्मिलित हुए । प्लेटो का विचार था कि ऐसे आयोजनों में किया जाने वाला व्यय जनकल्याण में लगना चाहिए । मन्दिर में एक नया दृश्य देखने को मिला । नगरवासी देवप्रतिमा के सामने अनेक पशुओं की बलि चढ़ाने लगे । जो आता, एक पशु अपने साथ लाता । देवप्रतिमा के आगे खड़ा कर उस पर तेज अस्त्र ये प्रहार किया जाता। दूसरे ही क्षण वह तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते, इठलाते और नृत्य करते । जीवमात्र के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्लेटो से यह दृश्य देखा न गया । वे उठकर चलने लगे । उनका हृदय आर्तनाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उनका हाथ पकड़कर कहा – “मान्य अतिथि ! आज तो आपको भी बलि चढ़ानी होगी । यह लीजिए तलवार और यह रहा बलि का पशु, तभी देवप्रतिमा प्रसन्न होगी ।" प्लेटो ने शान्तिपूर्वक थोड़ा पानी लिया, मिट्टी गीली की, उसका एक पिण्ड बनाया और देवप्रतिमा के आगे चढ़ा दिया । फिर चलने लगे घर की ओर । अन्य श्रद्धालु इस पर बहस करने लगे - " क्या यही आपका बलिदान हैं ? प्लेटो ने शान्ति से कहा - "हां, आपका देव निर्जीव है । उसे निर्जीव भेंट ही उपयुक्त थी, सो चढ़ा दी । वह खा-पी नहीं सकता, इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा - नहीं ।' धर्मध्वजियों ने प्रतिवाद किया - "जिन लोगों ने यह प्रथा चलाई, वे मूर्ख थे ? क्या हमारा कृत्य मूर्खतापूर्ण है ? प्लेटो ने मुस्कराकर निर्भीकतापूर्वक कहा - "आप हों या पूर्वज जिन्होंने भी यह प्रथा चलाई, पशुओं की ही नहीं, मानवीय करुणा की हत्या का प्रचलन किया है । कृपया अपनी तृप्ति को धर्म न बनाओ, देव को कलंकित मत करो, न धर्म को धर्म हिंसा, अन्धविश्वास - पोषण एवं अविवेक में नहीं ।" सभी लोग निरुत्तर थे । प्लेटो चले गए । यह है - पशुबलि के रूप में हिंसा का ताण्डवृनृत्य ! भारत में आज पशुबलि प्रथा प्रचलित है, वह यज्ञादि के नाम से नहीं है, अपितु अपनी लौकिक कामनापूर्ति हेतु काली दुर्गा, आदि देवियों के आगे पशुबलि चढ़ाई है । नेपाल में पशुपतिनाथ के आगे भैंसे की बलि होती है । अब लीजिए यज्ञादि धर्म के नाम पर पशुबलि का हिंसात्मक रूप ! प्राचीनकाल में भारत में अश्वमेध, गोमेध, आदि यज्ञ होते थे, उनमें हजारों निरीह प्राणियों को स्वर्ग भेजने के नाम पर काटकर बलि चढ़ाते थे । 'याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर याज्ञिकी हिंसा को हिंसा मानने से इन्कार करके याज्ञिक आत्मवंचना और लोकवंचना करते थे । अधिकांश क्षत्रिय यजमान मिल जाते । वे अपनी पुण्यवृद्धि एवं स्वर्गफल की आशा से यज्ञ कराते । यज्ञ का सारा खर्च उन्हीं का होता था । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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