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________________ १५४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ हलकी सजा की बात पढ़ी ही न हो । ४६ वर्ष (सन् १९२० से १९६६ तक) के शासन काल में उसने ३० हजार पुरुषों और २० हजार स्त्रियों को फाँसी के तख्ते पर चढ़वाया । वह फाँसी लगने का दृश्य देखने में बहुत रस लेता था । औसतन ५ व्यक्तियों को वह प्रतिदिन फाँसी पर चढ़ाता था, दया करना सीखा ही नहीं। उसकी कुरुचि ने असंख्य निर्दोष व्यक्तियों को करुण विलाप करते हुए अकारण मृत्यु के मुख में धकेला। जेम्स प्रथम के शासनकाल में इंग्लैण्ड के एडिनबरा नगर से कुछ ही दूर एक गाँव में स्वेनेवीन नामक लड़का जन्मा । उसे बचपन से ही चोरी की आदत पड़ गई । पीछे उसे क्रूरता में मजा आने लगा। वह पक्षियों की गर्दन मरोड़कर उनका खून पी जाता, अकेला कोई कुत्ता, बिल्ली आदि मिल जाता तो उसे एक ही डंडे में धराशायी कर देता, मेंढकों को पैरों तले कुचल डालता, मधुमक्खियों के छत्ते जला डालता, इस प्रकार की क्रूरता से मनोरंजन करता। एक दैत्याकार स्त्री भी उसे ऐसी ही मिल गई। दोनों मिलकर कर कर्म करने लगे। बाद में समुद्रतट के निकट वीरन क्षेत्र 'गालांबे' में एक गुफा में दोनों रहने लगे। पूरे २५ वर्ष तक यात्रियों को लूटना, सहसा हमला करके दम निकाल देना आदि धंधे करते रहे। इस दौरान ३ हजार नर-हत्याएँ की । जर्मनी के विषाणु शोधकर्ता फिजराफ को पुलिस ने पकड़ा और पाया कि वह छोटे बच्चों को चुराकर उन्हें तड़पा-तड़पाकर मार डालता है। इस प्रकार मनुष्यों की हत्या करने-कराने में संलग्न नरपिशाच हिंसा के ही पुजारी थे । वे इस विविध रूपों में हत्याएं करते-कराते जीवन बिताते रहे। ... हिंसा : पशु-पक्षी एवं मनुष्य की बलि के रूप में .. प्राचीनकाल में मनुष्य देवी-देवों को प्रसन्न करके उनसे सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु पशु (बकरा, भैंसा आदि) व पक्षी (मुर्गा आदि) उनके आगे चढ़ाता था । इस प्रकार पशु-पक्षी का वध करके अपने इष्ट देवी-देवों के समक्ष बलि चढ़ा देते थे। इस प्रकार का अधविश्वास सारे भारत में प्रचलित था। भगवान् महावीर और उनके अनुगामी साधु-साध्वीगण तथा तथागत बुद्ध व उनके अनुगामी भिक्ष पशु-पक्षीबलि का घोर खण्डन करते थे। वे आमजनता को इस हिंसा का स्वरूप समझाकर इसका त्याग कराते थे। आज भी बंगाल-बिहार में काली, दुर्गा आदि देवियों के आगे बकरों की बलि दी जाती है। यद्यपि सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से पशुबलि का निषेध करते हैं । जिन तांत्रिक ग्रन्थों में पशुबलि का विधान है, वे भी पशु का अर्थ काम, क्रोध आदि अधम वृत्तियाँ करते हैं, फिर भी जिह्वालोलुप पंडे-पुजारी तथा अन्धविश्वासपरायण देवीभक्त इन बातों को नहीं मानकर प्राणिवध में ही कल्याण एवं लौकिक कामनाओं की पूर्ति समझते हैं । गुजरात में कुमारपाल राजा का राज्य था। उस समय परम्परा से कण्टकेश्वरी देवी के आगे पशुबलि का रिवाज था, परन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने युक्ति से समझाकर पशुबलि बंद करवा दी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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