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________________ वेश्या-संग से कुल का नाश : १२६ वेश्या-आसक्ति से कुलों का सर्वनाश यह तो महादुर्भाग्य होगा उस समाज या राष्ट्र का-जिसके सिर पर वेश्यावर्ग रूपी कलंक का काला टीका विद्यमान है । वेश्याओं के द्वार का दर्शन करते ही मर्यादा (लज्जा या शील की) का पट फट जाता है; धर्मशास्त्र भी विस्मृत हो जाते हैं; ओज, तेज, सौन्दर्य एवं स्वास्थ्यरूपी धन विदा हो जाता है; ऋतुमती होने पर भी लोभवश कामीपुरुष के साथ दुराचार में प्रवृत्त होने वाली वेश्या आतशक, सुजाक, क्षय, कुष्ट आदि भयंकर रोगों से आक्रान्त हो जाती है, तब क्या उसका संग करने वाला अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रख सकता है ? वेश्या की अट्टालिकाओं पर प्रायः जुए का अड्डा और मधुशाला (मद्यपानगृह) की महफिल-दोनों विद्यमान रहते हैं, तब वहाँ जाने वाला इन दुर्व्यसनों के चेप से मुक्त कैसे रह सकता है ? और मांसाहार तथा शराब, जुआ तथा चोरी-लूट एवं हत्या आदि भयंकर पापों का सेवन करके वेश्यागामी अपने परिवार एवं समाज को इस भयंकर छूत से कैसे बचा सकेगा? अतः वेश्यावर्ग का अस्तित्व तो प्लेग की बीमारी के समान है जिससे कोई भी कुटुम्ब, परिवार, समाज या राष्ट्र विनाश के गर्त में पड़ने से बच नहीं सकेगा। इसीलिए कहा गया है वेश्या श्मशानसुमना इव वर्जनीया —वेश्या श्मशान घाट के फूलों की तरह सर्वथा त्याज्य है। इतिहास के विद्यार्थी जानते होंगे कि १४वें लुई के समय में फ्रांस में वेश्याओं का बोलबाला था । व्यभिचार खुलेआम होता था, शील की कोई मर्यादा नहीं थी। न तो उस समय एक-पतिव्रत-धर्म शेष रहा था और न ही एक-पत्नीव्रत-धर्म । फ्रांस एक प्रकार से वेश्यावृत्ति की लपटों में जल रहा था। १५वाँ लुई अत्यन्त स्त्रीलम्पट था। बुढ़ापे में भी वह इतना वेश्यासक्त था कि उसी एक वेश्या के संकेत पर सारा राज्यकार्य चलाता था। वहाँ के सामन्तों एवं उमरावों (लॉर्डों) की स्त्रियां भी व्यभिचारिणी हो गई थीं, उनका मध्यमवर्गीय पुरुषों के साथ अनुचित सम्बन्ध हो गया था। वहाँ के धर्मोपदेशक भी उस समय दुराचारी हो गये थे । फ्रांस के १५वें लुई के साथ-साथ वहाँ की समस्त जनता वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और अन्यान्य पापकर्मों में इतनी लिप्त हो गई थी कि वह न तो धर्म और ईश्वर को मानती थी, और न ही धर्मगुरु को । पाखण्ड कहकर सबकी मजाक उड़ाती थी। फ्रांस के वेश्यासक्त लोग अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की समस्त नैतिक मर्यादाओं को भूलकर अत्यन्त स्वच्छन्द बन गये थे। ऐसे अति-विलासी और व्यभिचारी तथा उच्छृखल जन-जीवन का नतीजा यह हुआ कि फ्रांस में भयंकर रक्तपात, क्रूरता, हत्या, मारकाट आदि पापकर्म फूट निकले, जिसे रक्त-क्रान्ति का नाम दिया गया। इतिहासकार लिखते हैं कि उन्हों व्यभिचारिणी पतित नारियों ने अपने हाथों से उन घायल सिपाहियों के गले काटकर उनके कलेजे का मांस पकाकर खाया। कैदियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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