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________________ ३१० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ उधर से घोड़े पर सवार एक राजा उसके पीछे आ रहा था । सुन्दरी को देखते ही उसके मन में काम विकार पैदा हुआ। उसे पकड़ने के लिए उसने अपना घोड़ा दौड़ाया। कामान्ध मनुष्य के मन में भय और लज्जा नहीं होती । राजा को अपनी ओर आते देख वह स्त्री समझ गई कि यह दुष्ट अवश्य ही मेरे शीलधर्म को हानि पहुँचाएगा। वह धर्मरक्षा के हेतु बेतहाशा दौड़ी। मन में धर्म के नाम का रटन था। राजा भी उसके पीछे भागा । महिला के पैरों तले कांटे आए मगर धर्म के प्रताप से चुभे नहीं। पानी से भरी नदी आई । महिला ने सोचा-'धर्म की रक्षा के लिए मर जाना श्रेष्ठ है, मगर धर्म नष्ट करके जीना ठीक नहीं।' यों सोचकर उसने नदी में छलांग लगाई। आश्चर्य की बात है कि उसके पैरों के तलवों में पानी लगा, मगर वह डूबी नहीं । वास्तव में शीलधर्म का प्रभाव अचूक होता है। स्त्री को नदी पार होते देख कामान्ध राजा ने भी नदी में अधिक पानी नहीं है, यह सोच ज्यों ही घोड़े को नदी में उतारा, वह राजा पानी के तेज प्रवाह में बहकर मर गया । यह दृश्य देख उस सुन्दरी ने सोचा- अगर नदी ही मारने या बचाने वाली होती तो, या तो वह दोनों को ही मार देती या दोनों को ही बचा लेती । इसलिए व्यास ऋषि की यह उक्ति विलकुल सच है धर्म एव हतो हन्ति, धमो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मों न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत ।। "नष्ट किया हुआ धर्म हमेशा नाश करता है, हमारे द्वारा रक्षा किया हुआ धर्म ही हमारी रक्षा करता है । इसलिए धर्म का हनन नहीं करना चाहिए ताकि विनष्टधर्म हमारा विनाश न करे।" जिसने धर्म को त्यागा, उसे सभी विभूतियाँ त्यागकर चली जाती हैं। उसे सदा दुःख दुर्भाग्य ही घेरे रहते हैं। ऐसे लोग नरक जैसी यंत्रणाग्रस्त मनोभूमि तथा आग में जलते रहने जैसी बैचैनी लेकर जिन्दगी के दिन ज्यों-त्यों पूरे करते हैं । धर्म का परित्याग करके मनुष्य पशु ही नहीं, पिशाच भी बन जाता है। धर्म रक्षा क्यों नहीं करता? एक शिकायत : एक समाधान बहुत-से धर्म पर अविश्वासी या अर्धविश्वासी लोगों की शिकायत है कि 'हमारी पंचमांश शक्तियाँ तो धर्म खा जाता है, बदले में हमें झूठी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं देता' इसके उत्तर में हमारा कथन है कि आप जिसे अपनी शक्तियां सौंपते हैं, वह धर्म न होकर धर्मभ्रम या धर्माभास होगा। धर्म तो एक प्रकार की उर्वरा भूमि है, जिसमें बोया हुआ बीज कई गुना होकर लौटता है। धर्म में 'नकद' होने की विशेषता है, 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' का स्वाभाविक गुण है । जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है। यदि किसी प्रकार का प्रत्युत्तर या प्रत्युपकार प्राप्त न हो तो समझना चाहिए, कि नकली चीज है । जिसमें गर्मी और प्रकाश दोनों न हों उसे अग्नि नहीं कहा जा सकता, इसी प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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