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धर्म : जीवन का त्राता : ३११
जिसकी रक्षा करने पर भी जो न तो सुख में वृद्धि करता है, न आफतों से रक्षा करता है, वह धर्म नहीं है।
प्रायः मनुष्यों में आज असवृत्तियाँ बलवती होगई हैं । वे मनुष्य को असत्कार्य करने के लिए लालायित व आकृष्ट करती रहती हैं। जिस प्रकार अर्जुन को मोहवश धर्म के विषय में भ्रान्ति हो गई थी, वह सत्-असत्वृत्ति का विवेक न कर सका तब श्रीकृष्ण ने उसे धर्म का सही स्वरूप बताया। अर्जुन की तरह जब मनुष्य सत्-असत् का निर्णय नहीं कर पाता, तब मोहवश अधर्म को ही धर्म मान बैठता है। जो भ्रमवश अनुचित को ही उचित मानने लगता है, तब उसका वह कार्य धर्म की परिधि में न होने से न तो अभ्युदय तथा कल्याण में सहायक होता है, न उसके कार्यों से सामाजिक हित की सुरक्षा होती है ।
वास्तव में धर्म का अर्थ एवं उद्देश्य है, जो व्यक्तित्व परिष्कार या व्यक्ति-कल्याण के साथ-साथ सामाजिक हित के अनुकूल हो। अपने जीवन-निर्वाह के लिए किया जाने वाला जो व्यवसाय या श्रम है, वह धर्मानुकूल तभी माना जा सकता है, जब वह दूसरों का अहित करने या शोषित-पीड़ित करने वाला न हो। मूढ़ लोग पशुबलि, कसाईपन, चोरी, लूट-पाट, डकैती, बेईमानी आदि अनैतिक धंधों को भी धर्म समझ बैठने हैं। दस्युजीवन बिताने वाला वाल्मीकि अपने परिवार के सदस्यों का पालन करने के लिए लूट-पाट करने को ही 'धर्म' समझता था । एक बार उसने धन के लोभ से सप्तऋषियों को पकड़ लिया । सप्तऋषियों ने उससे पूछा- "भाई ! असहाय लोगों को इस तरह लूटना और मारना तो पाप है, तुम यह सब क्यों करते हो ?" इस पर वाल्मीकि ने उत्तर दिया- 'यह तो मेरी जीविका है। इससे मैं अपने वृद्ध माता, पत्नी व सन्तान का पालन-पोषण करता हूँ। भला, अपने आश्रितों का पोषण करना क्या पाप है ?" यह सुन सप्तऋषियों ने समझाया-'अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों के हितों का हनन करना, अपना पेट भरने के लिए दूसरों का शोषण करना , उन्हें भूखे मारना, तड़फाना; अपनी पारिवारिक सुख-समृद्धि के लिए दूसरे परिवारों को कष्ट व असुविधा में डालना, बिना श्रम किये हुए दूसरों का श्रमार्जित धन छीनकर उसका उपभोग करना 'धर्म' नहीं माना जा सकता।" वाल्मीकि को बात समझ में आ गई । वह सोचने लगा-'सचमुच मेरे कार्य से दूसरों का उत्पीड़न, शोषण होता है। जिस कार्य से दूसरों को पीड़ा होती हो, दूसरे के प्रति अन्याय हो, वह धर्म नहीं माना जा सकता।' इस प्रकार की अनुभूति ने 'वाल्मीकि' को दस्यु से महर्षि बना दिया। धर्म का असली तत्त्व जब उनके जीवन में प्रविष्ट हुआ तो उनका व्यक्तिगत परिष्कार हुआ, वे धर्म को जीवन में रमाकर करोड़ों मनुष्यों के मार्गदर्शक बन गये; समाज की भी रक्षा हुई। वास्तविक धर्म को छोड़ देने से ही आज लोग पराधीन, बेकार, क्षुधात, रुग्ण और दीनहीन, विपद्ग्रस्त एवं चिन्तातुर बने हुए हैं । देखिये अमृत काव्य संग्रह में धर्म के त्याग का दुष्परिणाम
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