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________________ ३१२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ नीति छोड़ दूर भोला धारत अनीति मन, धर्म को छोड़ के पातक धारे मन में । चिन्तामणि छोड़कर कांच को संचय करे, कल्ततरु काट बोबे बबूल अंगन में। धेनु छोड़ अजा ग्रहे, अमत से धोवे पग, सुख सिज्जा छोड़कर सोवत अगन में। 'अमीरिख' कहे भरे कंचन के थाल धल, दोन भव हार मूढ़ धिक तीन पन में।। १२ आज यही दशा हो रही है। हर क्षेत्र में स्वार्थपरता घुस गई है। धर्मगुरु जहाँ पहले रक्षा करने वाले धर्म का उपदेश दिया करते थे वहाँ भी आज ओछी मनोवृत्ति के तथाकथित गुरुओं ने व्यक्तिगत स्वार्थ-लाभ की प्रेरणा से शुद्ध धर्म में नकली बातें जोड़ दीं । इस नकली-असली के संमिश्रण के कारण स्थिति ऐसी है कि धर्म के नाम से किये जाने वाले अधिकांश कार्य अधर्मरूप या पापरूप होते हैं। उनमें पुण्य का भाग कम और पाप का भाग अधिक होता है। इसी कारण रक्षा या सुख समृद्धि नहीं हो पाती। धर्मरक्षा को प्राथमिकता कहाँ ? __एक बात और है-आज कितने लोग हैं, जो पुत्र, यश, धन, स्वास्थ्य, सुखसुविधा आदि की रक्षा के प्रश्नों को गौण करके सर्वप्रथम धर्म की रक्षा करते हैं ? जैसे स्वास्थ्य-रक्षा के लिए वैद्य आदि के निर्देशानुसार लोग खाने-पीने, सोने-उठने तथा पहनने आदि का पूरा ख्याल रखते हैं । पुत्रादि के जन्म तथा विवाह आदि के प्रसंगों पर यश-कीर्ति प्राप्त करने की बेहद कोशिश की जाती है। अपनी झूठी शान और मिथ्या प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए लाखों रुपये विवाह आदि प्रसंगों पर फूक दिये जाते हैं। अपने धन की सुरक्षा या प्राप्ति के लिए येन-केन-प्रकारेण अन्याय-अनीति, बेईमानी, झूठ-फरेब करके, धर्म को धता बताकर भी आकाश-पाताल एक कर दिया जाता है। अपनी बात रखने के लिए अथवा भाईबन्धुओं से लड़ाई करके मुकदमेबाजी करने में अपने अहंकार की रक्षा हेतु कितना उखाड़-पछाड़ किया जाता है, परन्तु धर्मरक्षा की कितनी चिन्ता है ? धर्म रहे चाहे जाए ? इसकी परवाह बिलकुल नहीं की जाती। श्रीकृष्ण ने धर्म की श्रेष्ठता एवं सुरक्षा को अधिक महत्त्व देते हुए कहा था मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्याम, वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च । राज्यं च पुत्रांश्च यशोधनं च, सर्व न सत्यस्य कलामुपैति ।। "अर्थात्- मेरी प्रतिज्ञा को सत्य समझो । मैं जीवन और अमृत (मोक्ष) से भी धर्म को श्रेष्ठ स्वीकार करता हूँ, क्योंकि राज्य, पुत्र, धन और यश, ये सब सत्य यानी धर्म की कला के बराबर भी नहीं हैं । धर्म को विदाई देकर सुरक्षा की आशा कैसी ? किन्तु हम देखते हैं- इस युग में पाप और अधर्म ही अधिक बढ़ रहा है। धम के नाम पर अधर्माचरण का इन्द्रजाल फैला हुआ है, उससे धर्म का सही रूप ही लुप्त हो चला है। ऊपर से धर्मात्मा का ढोंग रचकर, धर्मक्रियाएँ करके, लोगों ने धर्म की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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