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________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ४६ देखकर प्रसन्न होता था, मन में सुख-शान्ति पाता था, वहीं वह उसका वियोग होते, नष्ट होते देखकर दुःख और क्लेश पाता है। उसे देखकर वह किसी प्रकार आनन्द नहीं पाता और न ही उस पदार्थ की टूट-फूट से उसे कोई कष्ट होता है, न चिन्ता । क्योंकि वह पदार्थ अब पराया हो चुका है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने सुख को सांसारिक वस्तुओं में मानता है, वस्त्र में, भोजन में, उत्तम मकान में, वासनापूर्ति में, तो उसे इन वस्तुओं के न मिलने पर घोर निराशा होगी। आज उसके पास सुन्दर और उत्तम वस्त्र हैं। वह रेशमी कपड़े पहनता है तो सुख का अनुभव करता है, किन्तु निर्धन होते ही उत्तम वस्त्रों का न होना उसके लिए दुःख का प्रधान कारण बन जाएगा । आज एक व्यक्ति चटपटे और सुस्वादु भोजन में आनन्द मानता है, कल को मँहगाई और निर्धनता के कारण उस स्तर का भोजन न पा सकने के कारण वह उसके लिए दुःख और क्लेश करेगा । आज एक व्यक्ति उत्तम मकान में रहता है, वह अपने आपको सुखी समझता है, एक दिन उसके छिन जाने से मन में दारुण दुःख का अनुभव करता है । वे ही वस्त्र जो सर्दियों में सुख के कारण हैं, गर्मियों में दुःखदायक लगेंगे, वे ही मिठाइयाँ जो स्वस्थ और निश्चिन्त अवस्था में मधुर और सुखकारक लगती हैं, बीमारी की हालत में दुःखदायक लगेंगी। सुख का केन्द्र जितना ही बाह्य वस्तुओं को माना जाएगा, उतना ही मन को दुःख और क्लेश होगा। बाह्य वस्तुएँ सतत परिवर्तनशील हैं, परिवर्तन आते ही वस्तुनिष्ठ सुख मानने वाले का सुख-स्वप्न भंग हो जाएगा। मकान, वस्त्र, भोजन, उपभोग की नाना वस्तुएँ, वासनातृप्ति के उपकरण आदि निरन्तर परिवर्तन को प्राप्त हो रहे हैं। उनमें अपनापन स्थापित करके या भ्रान्तिवश सुख की कल्पना करके उनमें अपने सुख को केन्द्रित कर लेना अथवा यह मान लेना कि हमारा सुख इन्हीं वस्तुओं की उपस्थिति पर निर्भर है, मनुष्य का अज्ञान और अन्धकारमय-भ्रान्तिमय दृष्टिकोण है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति विशेष में सुख को केन्द्रित करना भी मनुष्य का अज्ञान है । व्यक्ति हाड़-मांस का पुतला है, क्षण-क्षण परिवर्तनशील है, किसी क्षण प्रसन्न और किसी क्षण नाराज हो जाता है, वह हवा के झोंके के समान अस्थायी है । जब तक आप उन लोगों के स्वार्थ की पूर्ति करते हैं, उनको अर्थ-लाभ देते हो, उन्हें आपसे चार पैसे मिलने की आशा रहती है, तब तक वे आपको पूछते हैं, हँसते-बोलते हैं, आपकी प्रशंसा करते हैं, आपसे मधुर सम्बन्ध रखते हैं, जिस दिन उन्हें अपने स्वार्थ में धक्का लगेगा, उसी दिन वे आपसे रुष्ट हो जाएंगे, आपका सुख-स्वप्न भी पूर-चूर हो जाएगा। - , मान लीजिए, किसी व्यक्ति ने अपना सुख अपने पिता, भाई, माता, पत्नी या बाल-बच्चों में अथवा किसी अन्य सम्बन्धी में केन्द्रित कर रखा है, वह मानता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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