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८४. सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट धमप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवनसूत्र पर विवेचन करना चाहता हूँ, जिसका सम्बन्ध मानव मात्र से ही नहीं, प्राणिमात्र से है। परन्तु मानवेतर प्राणी के लिए उसे प्राप्त कर सकना अत्यन्त दुष्कर है। मानव ही विचारशील होने के नाते उसे प्राप्त कर सकता है, वह है धर्म-सुख । महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है--
सव्वं सुहं धम्मसुहं जिणाइ समस्त सुखों को धर्मसुख जीत लेता है, अर्थात् धर्मसुख सभी सुखों में उत्कृष्ट एवं सर्वोपरि है।
गौतमकुलक का यह ७०वाँ जीवनसूत्र है । धर्मसुख क्या है ? दूसरे सुखों से ग्रन्थकार का क्या तात्पर्य है ? धर्मसुख ही सबसे उत्कृष्ट और सर्वोपरि क्यों है ? इन सब सम्बन्धित प्रश्नों पर आज आपके समक्ष चर्चा करना चाहता हूँ। धर्मसुख से भिन्न सुख : कौन-कौन से, कैसे और किन में ?
मनुष्य में ही नहीं, प्राणिमात्र में सुख की आकांक्षा एक या दूसरे रूप में होती है । यह बात दूसरी है कि दूसरे प्राणियों की सुखेच्छा मनुष्यों की सुखाकांक्षा से भिन्न प्रकार की होती है। बहुत बार मनुष्य अज्ञानवश किसी चीज को भ्रमवश वहीं खोजते-खोजते अपने को थका डालता है, जहाँ वह नहीं होती, तब वह निराश होकर भाग्य को दोष देने लगता है। यही बात सुख-शान्ति के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए। सुख की खोज प्रायः लोग अज्ञानवश पर-पदार्थों में करते रहते हैं, जहाँ वह है नहीं। वह उन्हें मिलता ही कैसे ?
सुख का निवास न तो किसी पदार्थ में है, और न किसी व्यक्ति में । वह अपने मन से सम्बन्धित है। किसी के पास एक सुन्दर भवन है। वह उसे देखकर बहुत प्रसन्न होता है । प्रसंग चलने पर उसकी बात करता है, उसकी सुविधाओं के विषय में बतलाता है । जब कोई उसके मालिक के परिचय के लिए कहता है, तब शिष्टाचारपूर्वक नम्रभाषा में प्रसन्न होकर वह अपना अधिकार व्यक्त करता है और सुख पाता है । कुछ ही दिनों के बाद कर्ज चुकाने के लिए उस भवन को बेच देना पड़ा, तब वही भवन अब मन में दुःख का कारण बन गया । क्योंकि अब उस भवन पर उसका अपनापन नहीं रहा । इसी प्रकार जहाँ भी उसने अपनेपन की छाप लगाई, उसे देख
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