SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ : yarashtr ghi friepteg BY: आवनय प्रवचन भागोही FAFETFE IF या FEST केवल कामवासना ही नहीं, शरीर के इन्द्रिय समूह से विनोद, मनोरंजन एवं आराम विश्राम के सभी साधनों से जुड़ी रहती है। दूसरी बड़प्पना की इच्छी तृष्णा कहलाती है। मानवीय चेतना की ये दोनों इच्छाकीय परत भौतिक हैं । तीसरा स्तर है जिसमें अध्यात्म की पृष्ठभूमि प्रधान है । इसमें दो तरह की इच्छाएँ उठती हैं-एक उत्कृष्टता की, दूसरी आदर्शवादिता की । व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय सद्गुणसम्पन्न बनाना तथा उसे परमार्थ प्रयोजन के लिए उदारताभरी सेवासाधना में संलग्न रखना ही इस इच्छा पूर्ति के दो मार्ग हैं। मोक्ष-प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर रत्नत्रय की साधना करना तथा कल्याण के लिए अपने मन-वचन-काया को प्रस्तुत कर देना- ये दोनों उत्कृष्ट इच्छाएं अथवा आकांक्षाएं भी आगे चलकर सर्वोच्च स्तरीय साधक में लुप्त हो जाती हैं । सहज भाव से यह सब स्व-परकल्याण साधना होती रहती है । इच्छा के तीन प्रकार के स्तरों में से तीसरे प्रकार के स्तर वाले के लिए इच्छानिरोध करना कोई कठिन नहीं है । वह व्यक्ति इन भौतिक इच्छाओं को इतना महत्व नहीं देता; क्योंकि वह भली-भांति जान लेता है कि जहाँ तक व्यक्तिगत उपभोग का सम्बन्ध है, एक बहुत छोटी मात्रा में ही धन, वैभव, यश आदि भौतिक सम्पदाओं को काम में लाया जा सकता है । थोड़े से आहार से पेट भर जाता है, पहनने के लिए थोड़ा सा कपड़ा पर्याप्त है, रहने के लिए एक सादा-सा छोटा मकान मिल गया तो बहुत है, थोड़े से अन्य आवश्यक साधनों की जरूरत रहती है । उनकी पूर्ति अपनी आजीविका के अंश से हो जाती है । यश, प्रतिष्ठा आदि के लिए कोई पैसा या साधन खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती। मनुष्य के अच्छे आचार-विचार , अच्छा व्यवहार या अच्छे कार्य ही उस के यश की दुन्दुभि बजा देते हैं । अतः इन थोड़ी-सी मूलभूत आवश्यकताओं और उपभोग की नगण्य क्षमताओं के अतिरिक्त जो भी इच्छाएँ हैं वे लोभ, मोह आदि की सनक पूरी करने के लिए हैं, जो किसी भण्डार में जमा पड़ी रहती हैं। जो लोग प्रथम दो स्तर की इच्छा वाले होते हैं, वे दूरदर्शी नहीं होते। यदि लोभ, मोह, ममता और कृपणता से ग्रस्त होकर व्यक्ति इन भौतिक सम्पदाओं का संग्रह ही करता चला जाता है, तो उसका सदुपयोग होना कठिन है। मरने के बाद उस हराम के धन और साधनों के पाने के लिए कुटुम्बियों और सम्बन्धियों में प्रायः परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, कलह भड़कता है । यह मुफ्त का माल जिसके हाथ लगता है, वह प्रायः उसे व्यसनों में फक देता है। अतः बुद्धिमत्ता धनादि का संग्रह करने में नहीं, उससे इच्छाएं बढ़ती ही जाएंगी, बुद्धिमत्ता इसी में है कि उनका सदुपयोग हो । पूर्वपुण्यवश उपार्जित सम्पदाओं का जो ठीक तरह से उपभोग कर लेता है, और सिर्फ पूर्वोक्त दोनों भौतिक स्तर की इच्छाओं वाला है, उसके लिए इच्छाओं का निरोध अतीव दुष्कर हो जाता है । वह यही सोचता है कि इन सांसारिक सुखों का उपभोग जितना कर सकू, कर लेना चाहिए। इसे समझाने के लिए कुछ ही वर्षों पूर्व 'कल्याण' में पढ़ी हुए एक घटना देना पर्याप्त होगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy