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________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १७१ नौकरानी के रूप में काम करती थी । और दो या तीन मास बाद किसी दिन अपने पति अरुण बंगाली को बुलाकर घर की सफाई कर देती थी । गत वर्ष शीला ने अपना नाम मीना और अपने पति का नाम रामकिशोर रखकर स्वयं ने सफदरजंग के के० सी० त्रिपाठी के यहाँ नौकरी कर ली । एक दिन त्रिपाठी को परिवार एक शादी में गया हुआ था, तो उसने घर की सफाई कर डाली । गत अप्रेल में उक्त दम्पती नेफ्रैंड्स कॉलोनी के रवीन्द्रसिंह साहनी के यहाँ नौकरी कर ली, अपना नाम राजेश्वरी रख लिया । एक दिन ५० हजार रुपये का सोना और हीरे लेकर चम्पत हो गई । आखिर एक दिन पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया । कई बार गृहिणियों को चकमा देकर उनके पति अमुक डिब्बा मँगवा रहे हैं, या अमुक चीज मँगवा रहे हैं, इस प्रकार का बहाना बनाकर वे गृहिणियों से कई चीजें लेकर फरार हो जाते हैं । आजकल बहुत-सी फिल्मों ने गजब ढहा दिया है, कई नवयुवक फिल्म देखकर उसी तरीके से चोरी करने लगते हैं, किन्तु नौसिखिये होने के कारण वे पकड़े जाते हैं । चाहे कैसा भी तरीका हो, ये सब कठोर दण्ड के पात्र चौर्यकर्म हैं । ये सब नैतिक पतन करने वाले तथा आध्यात्मिक विकास को रोकते हैं, इसलिए त्याज्य हैं । ये व्यसन इसलिए हैं कि इन चौर्य कर्मों का एक बार चस्का लगने पर वह वहीं नहीं रुकता, बार-बार उसकी आवृत्ति करता है । एक ही श्लोक में नारद संहिता ने इस त्याज्य चौर्य-कर्म का लक्षण दे दिया है उपायविविधैरेषां छल यित्वाऽपकर्षणम् । सुप्तमत्तप्रमत्तेभ्यः स्तेयमाहुर्मनीषिणः || अर्थात् - सोये हुए, शराब आदि पीकर नशे में चूर अथवा प्रमत्त -- असावधान व्यक्तियों से विविध छलपूर्ण उपायों द्वारा उनके धनादि साधनों का अपहरण करनेचुराने को मनीषीगण स्तेय या चौर्यकर्म कहते हैं । निष्कर्ष यह है कि किसी भी उपाय से छल, बल या झूठ - फरेब द्वारा पराये धन या दूसरों की वस्तु का हरण करना या चुरा लेना चोरी है । चोरी के अन्तरंग एवं बाह्य कारण अब प्रश्न यह है कि मनुष्य चोरी जैसे अनैतिक धन्धे में क्यों पड़ता है ? क्यों इतना खतरा उठाता है ? राजदण्ड, लोकनिन्दा, समाजदण्ड आदि अनेक खतरों को मोल लेकर तथा शारीरिक, मानसिक क्लेशों को गौण करके चोरी जैसा खतरनाक कुकृत्य क्यों अपनाता है ? उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् महावीर ने चोरी का सर्वप्रथम मूल और अन्तरंग कारण बताते हुए कहा है— Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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