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________________ १७२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ रूवे अत्ति य परिग्गहंमि, सत्तो व तत्तो न उवेइ तुट्ठि अतुट्टिदोरण दुही परस्प, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥ १ - रूप के ग्रहण करने में अतृप्त, सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं को आसक्तिपूर्वक ग्रहण करते हुए भी संतुष्ट नहीं है, बार-बार उनमें असक्त होकर भी उसे सन्तोष नहीं होता, वह लोभ का मारा तथा असन्तोष के वेग से व्याकुल पुरुष दूसरे की चोरी करता है । रूप एवं रूपवान् वस्तुओं की अतृप्ति, आसक्ति एवं लोभ के कारण ही क्यों, इसी प्रकार रस और रसवान ( स्वादिष्ट ) वस्तुओं, गन्ध और गन्धवान, शब्द और शब्दवान् ( कर्णप्रिय संगीत आदि), कोमल स्पर्श और स्पर्शवान् वस्तुओं के प्रति अतृप्ति, आसक्ति, असंतुष्टि एवं लोभ (लोलुपता) के कारण व्यक्ति चोरी करता है । यह बात इसी अध्ययन में आगे चलकर कही गई है । ૨ निष्कर्ष यह है कि रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन पाँचों विषयों तथा इन पाँचों विषयों से युक्त पदार्थों के प्रति आसक्ति, लोभ, अतृप्ति आदि के कारण मनुष्य चोरी जैसे अनैतिक कुकृत्य में प्रवृत्त होता है । इन पाँचों विषयों से युक्त नाना भोग्य पदार्थों को प्राप्त करने के लिये साधारण मनुष्य धन को अमोघ साधन मानता है, इसलिए धन बटोरने के लोभ से प्रेरित होकर भी वह चोरी जैसे अनैतिक कृत्य में प्रवृत्त होता है । इसीलिए चोरी का अन्तरंग कारण लोभ, आसक्ति, अतृप्ति आदि हैं । इनके बाह्य निमित्त कोई भी पदार्थ हो सकते हैं । चोरी के बाह्य कारणों में सर्वप्रथम कारण है- दरिद्रता या अभावों से ग्रस्त जिंदगी। जहाँ निर्धनता, गरीबी या दरिद्रता होती है, या अभावों से पीड़ित जिंदगी होती है, वहाँ अगर अज्ञान आकर मिल जाता है तो चोरी को खुला प्रश्रय मिल जाता है । किसी ने कहा है- 'चोरी की माँ गरीबी है और बाप है-अज्ञान ।' जो ज्ञानी व्यक्ति होता है वह चाहे जितना दरिद्रता, अभाव, गरीबी या निर्धनता से पीड़ित हो, कदापि चोरी जैसे अनैतिक पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता । किन्तु सभी व्यक्ति ज्ञानी नहीं होते, साधारण व्यक्ति स्थूल दृष्टि से, व्यावहारिक पहलू से सोचता है, वह दरिद्रता एवं अभाव का संकट उपस्थित होने पर लम्बे समय तक धैर्य नहीं रख पाता और चोरी जैसे धन्धे को अपना लेता है । दीर्घनिकाय में चोरी के इसी कारण की ओर संकेत किया गया है अधनानं धने अननुपदीयमाने, दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि । बालिदिये वेपुल्लंगते, अदिन्नादानं वेपुल्लंगमासि ॥ १. उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३२, गा. २६ २. उत्तराध्ययन अध्ययन ३२ Jain Education International ३. दीघनिकाय ३/३/४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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