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________________ ३० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ धर्मकथा । धर्मकथा से वैयक्तिक और सामाजिक विचारणा एवं कार्यपद्धति सही हो सकती है। मनुस्मृति में धर्मकथा द्वारा शुद्ध विचार-प्रदान या शुद्ध चिन्तन-पद्धति की प्रेरणा देने का महत्त्व बताया गया है अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम् । वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ॥ धर्मलाभ का इच्छुक व्यक्ति अहिंसा द्वारा ही कल्याण करने की शिक्षा दे, इसके लिए मधुर एवं कोमल वाणी का प्रयोग करे । धर्मकथा में केवल व्यक्ति-परिवर्तन की ही नहीं, समाज-परिवर्तन की भी शक्ति है । धर्मकथा के एक ही बार श्रवण करने, कहने या सुनने से हजारों व्यक्तियों का कल्याण हुआ है, होता है और भविष्य में भी होगा। ये धर्मकथा से लाभ नहीं उठा सकते सूर्य, चन्द्रमा, नदी, झरने आदि प्रकृतिदत्त वस्तुओं से सभी लोग लाभ नहीं उठा सकते, क्योंकि सभी की वृत्ति, प्रवृत्ति, प्रकृति, रुचि एक-सी नहीं होती। कोई किसी एक बात में प्रवीण होता है, कोई दूसरी बात में । नदी सब को समान भाव से पानी देती है परन्तु जिसके पास जैसा छोटा-बड़ा बर्तन होता है, उसी के अनुसार वह पानी ग्रहण करता है, वैसे ही धर्मकथा करने वाले तो सबको समान भाव से एक-सरीखी कथा सुनाते हैं, समझाते हैं, यह तो श्रोता पर निर्भर है कि वह कितना और किस रूप में ग्रहण करता है ? इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने बहुत ही सुन्दर निर्णय प्रस्तुत किया है न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्त स्त्वेकान्ततो भवति । सभी श्रोताओं को एकान्त हितकारी (धर्मकथा) के श्रवण से धर्मलाभ नहीं हो जाता, किन्तु अनुग्रहबुद्धि से (धर्मकथा) कहने वाले वक्ता को तो एकान्त धर्म-लाभ होता ही है। __इसके अतिरिक्त और भी ऐसे कुछ लोग हैं, जो धर्म को न जानने-समझने के कारण धर्मलाभ नहीं प्राप्त कर पाते । जैसा कि विदुर नीति में कहा है मतः प्रमत्तश्चोन्मत्तः श्रान्तः क्रु द्धो बुभुक्षितः। त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश ।। दश धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र ! निबोध तान् ।' "हे धृतराष्ट्र ! दस व्यक्ति धर्म को नहीं जान पाते, उन्हें समझो-(१) मदिरापान से मत्त, (२) प्रमादी, (३) उन्मत्त (मृगी आदि रोग से मूच्छित या पागल), (४) थका हुआ, (५) क्रोधी, (६) भूखा, (७) जल्दबाज, (८) लोभी, (९) भयभीत और (१०) कामासक्त।" १. विदुर नीति १।१०६-१०७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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