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धर्म कथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २६
सन्देश मिले-"(१) आपकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, उसकी पूजा करिये, (२) आपके पुत्ररत्न पैदा हुआ है, उसका उत्सव मनाइए और (३) भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ है, उनका समवसरण लगा है, धर्मोपदेश सुनिए।" तीनों सन्देशों के सुनते ही क्षणभर भरत चक्रवर्ती विचार में पड़े । उन्होंने तत्काल निर्णय किया- "मुझे तीर्थंकर भगवान् के समवसरण (धर्मसभा) में उनकी धर्मदेशना (धर्मकथा) सुनने सर्वप्रथम जाना है। शेष दोनों मेरे लिए गौण हैं। चक्ररत्न तत्काल नहीं पूजा जाएगा तो कोई हानि नहीं होगी। चक्ररत्न कहीं जाने वाला नहीं है । उसे बाद में भी पूजा जा सकता है और पुत्ररत्न पैदा हुआ है, इसका सुख तो सांसारिक सुख है। इस सुख को प्रकट करने के लिए उत्सव सम्पन्न किया जाता है, परन्तु धर्मश्रवण का सुख तो इससे कई गुना बढ़कर है । इसलिए पुत्ररत्न का उत्सव बाद में भी मना लिया जाए तो कोई आपत्ति नहीं होगी। धर्मदेशना-श्रवण का अवसर मुझं हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। धर्मकथा-श्रवण का अवसर बाद में नहीं मिलेगा।" बस, भरत चक्रवर्ती ने यथार्थ निर्णय ले लिया और चल पड़े अपने धर्मरथ पर आरूढ़ होकर तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के मुख से निःसृत अमृतवाणीमयी धर्मकथा श्रवण करने के लिए । धर्मकथा श्रवण करके भरत चक्रवर्ती को अपूर्व आनन्द और सन्तोष का अनुभव हुआ।
. इसी प्रकार जो लोग धर्मकथा से होने वाले अनुपम धर्मलाभ का महत्त्व जानते हैं, वे अर्थ और काम के लाभ के अवसरों को गौण समझते हैं ।
धर्मकथा से सभी समस्याओं का हल किसी दीन-दुःखी की तात्कालिक सहायता तो किमी हद तक कुछ समय तक सहारा देकर की जा सकती है, परन्तु किसी की कोई भी समस्या दूसरों के सहयोग से स्थायीरूप से हल नहीं हो सकती। रोगी का रोग दवा से नहीं, संयम से ही दूर हो सकता है। डाक्टर कितनी हो अच्छी औषधि दे, पथ्य-परहेज न रखने वाले मरीज की बीमारी लौट-लौटकर पुन: आती रहेगी। केवल अन्न-वस्त्र वितरण करने मात्र से गरीबी की समस्या हल नहीं हो सकती। किसी भूखे अथवा नंगे को भोजन-वस्त्र देकर उसकी तात्कालिक क्षुधा मिटाई जा सकती है, पर सदा के लिए ऐसे भूखे-नंगे को भोजन-वस्त्र दिया जाना कठिन होता है । उनकी गरीबी तो तभी दूर हो सकती है, जब वे स्वयं श्रम का महत्त्व समझें, अपनी न्यायनीतियुक्त कमाई के उपभोग में गौरव समझें, उनके मन में गरीबी अथवा अल्प आवश्यकताओं से निर्वाह करने का संतोष हो । मनोविकार हो समस्त आपत्तियों और समस्याओं की जड़ हैं । यही बात अन्य समस्याओं, कष्टों, दुःखों, मुसीबतों और विपत्तियों या अभावों के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। समस्याओं का सही समाधान धर्मविचार से युक्त तथा अहिंसा, संयम और तप से अनुप्राणित विचार पद्धति से ही हो सकता है । आज अधिकांश लोगों की विचार-पद्धति गलत है, उसे सुधारना होगा । किसी की विचार-पद्धति को सुधारना सबसे बड़ा पुण्य है । ज्ञानदान या आध्यात्मिक वस्तुतत्त्व की सही समझ देना सबसे बड़ा धर्म है। आज जनता की विचार-पद्धति, चिन्तन-प्रणाली को सुधारने का सबसे बड़ा माध्यम है
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