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________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि १७ चौथे जो दार्शनिक एवं तार्किक हैं, हर वस्तु को तर्क की कसौटी पर कसे बिना नहीं मानते, वे भी अर्ध-विदग्ध हैं, धर्मकला का प्रकाश नहीं पा सकते । (५) धर्मकला के प्रकाश को वे ही पा सकते हैं, जो बुद्धि और हृदय दोनों का संतुलन रखकर शुद्धधर्म को जीवन में रमाते हैं। धर्म के माहात्म्य का, उसके इहलौकिक फल का प्रत्यक्ष तथा पारलौकिक फल का परोक्ष (अनुमान और आगम) से साक्षात् करते हैं । धर्म के नाम पर चल रहे अन्धविश्वास व अन्धपरम्परा में वे नहीं फँसते, न ही धर्म की स्वपर-हितकर, विश्व-कल्याणकर बातों को ठुकराते हैं, वे अच्छी बातों को अपनाते हैं। धर्म और विज्ञान दोनों का सामंजस्य बिठाकर विज्ञान पर शुद्ध धर्म का अंकुश रखकर वे चलते हैं। इसी प्रकार तर्क या युक्ति के साथ श्रद्धा एवं विश्वास के तत्त्व को नहीं चूकते । जिनके विचार, वाणी और व्यवहार तीनों धर्म के रंग में रंगे रहते हैं, वह शुद्ध धर्म का स्वयं आचरण करके दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है । प्रकृति की खुली किताब से वह बहुत कुछ सीखता है और धर्म की कसौटी पर कसकर उसे आचरण में लाता है। धर्मकलायुक्त जीवन जीने वाला जो व्यक्ति धर्मकलायुक्त जीवन जीता है, वह तन, मन, वचन और धन या साधनों का बिलकुल अपव्यय नहीं करता, कम से कम आवश्यकताएँ रखकर उत्कृष्ट जीवन जीता है। उत्कृष्ट धर्मकला से युक्त जीवन के लिए न तो पाउडर, लिपस्टिक आदि सौन्दर्य प्रसाधनों की जरूरत है, और न बढ़िया वस्त्रों की। महात्मा गांधी का जीवन धर्मकलामय था । हमारे साधु-संतों का जीवन भी बहुत ही संयममय होता है इसलिए धर्मकलामय होता है। धर्मकलामय जीवन में अहिंसा, संयम और तप की आवश्यकता होती है। धर्मकलाकार अपना जीवन उद्देश्यपूर्वक जीता है। उसका उद्देश्य खाना-पीना ऐश-आराम करना या जैसे-तैसे ऊबड़-खाबड़ या अव्यवस्थित जीवन बिताना नहीं होता, अपितु ढर्रे की पाशवीय जीवन पद्धति से दूर, परिस्थितियों से समझौता न करता हुआ बन्धन-मुक्ति के व्यापक उद्देश्य पर अविचल रहकर शुद्ध धर्ममय जीवन जीता है । साथ ही वह उद्देश्य-पूर्ति में जुटा रहता है । ऐसा धर्मपरायण व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी जीता है । धर्म प्राणिमात्र के लिए अपने को न्योछावर करना सिखाता है, वह समस्त प्राणियों की शान्ति, अभ्युदय एवं निःश्रेयस के लिए जीता है। सबके हित में अपना हित समझता है। वह अपने तन, मन वचन एवं साधन का उपयोग प्रायः दूसरों के हित के लिए करता है। अपनी विद्या, कला, बुद्धि आदि का उपयोग भी सार्वजनिक हित में करता है। वह स्थितप्रज्ञ की तरह रहता है । कष्ट, कठिनाइयाँ, दुःख या आफतें आने पर वह घबराता नहीं, व शान्ति और समभावपूर्वक सह लेता है। अगर वह गृहस्थ है तो गृहस्थधर्म की मर्यादाओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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