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१८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
के अनुरूप प्रत्येक प्रवृत्ति करता है और साधु है तो साधुधर्म के अनुरूप । जिन्दगी को खेल समझकर प्रसन्नतापूर्वक जीता है। कष्ट को धर्म एवं तप समझकर समभावपूर्वक सहता है। इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट कहा है
सीखत वेद पुराण कुराण को, सीखत तान बजावत ताली । जंतर-मंतर-तंतर सीखत, चोट चलाय कुचोट को टाली ॥ खावण पीवण धातु रसायन, लावण्य और कला सब झाली । रीती कोठी नहीं सोहे 'तिलोक' के, त्यों सब कला धर्म बिन ठाली ॥
बन्धुओ ! आप भी धर्मकला के मर्म को समझकर जीवन को धर्मकला से ओत-प्रोत बनाएँ।
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