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________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३४५ साधु-- "सम्भव है, पति-पत्नी में आपस में मेल न हो, इस कारण भी संतान नहीं होती।" बुढ़िया-"नहीं, मुनिवर ! दोनों में बहुत मेल है । इतना प्रेम है, जितना सीता और राम में था।" साधु-"और सब कुछ ठीक हो, पर यदि तुम्हारा बेटा परदेश चला जाता हो और बहू तुम्हारे पास ही रहती हो तो पोता कैसे हो ? एक बात और भी सम्भव है कि पति-पत्नी रहते तो साथ ही हों, मगर पुरुष को धन की चिन्ता सताती हो, इसमें तुम्हारा लड़का घुलता हो तो भी पोता न होना सम्भव है।" वृद्धा हँसकर बोलो-“मैं ऐसी भोली नहीं हूँ। ऐसा होता तो समझ जाती। मगर ऐसा कुछ भी नहीं है।" साधु- “अच्छा एक बात और पूछता हूँ। जो माता-पिता की सेवा नहीं करते, उनके प्रायः पुत्र नहीं होता । बेटा-बहू तुम्हारी सेवा नहीं करते होंगे।" वृद्धा- "मेरा पुत्र और पुत्रवधू मिलकर ऐसी सेवा करते हैं कि शायद ही किसी को नसीब होती है । अब बताइये किसका दोष है ? साधु-"तब तो धर्म का ही दोष है।" वृद्धा जरा तेज स्वर में बोली-“महाराज ! मैं पहले ही कहती थी-यह धर्म का ही दोष है। इसी कारण मैंने धर्म छोड़ दिया । मुझे दूसरी स्त्रियाँ मिथ्यात्विनी कहती हैं, कहें, मेरा क्या बिगड़ता है ?" साधु- "माना मैंने, अब तो मुझे धर्म के दरबार में अर्ज करनी पड़ेगी कि बहुतसे लोग बेचारे बूढ़े होकर मर जाते हैं, पर बेटे का मुंह नहीं देख पाते । तुमने उस वृद्धा को लड़का देकर और दुःखी कर दिया । नहीं तो, वह धर्मध्यान करती । अब पोते के बिना उसे चैन नहीं पड़ती, उसे रात-दिन चिन्ता करनी पड़ती है।" बृद्धा चौंककर बोली-ऐं महाराज ! यह क्या कहते हैं ? यह तो धर्म का प्रताप है। धर्म के प्रताप से बेटा मिला है।" साधु-“कई लोगों के विवाह नहीं होते, तुम्हारे लड़के का विवाह जल्दी हो गया, यह बुरा हुआ, धर्म को अर्ज करना पड़ेगा।" बृद्धा- "अजी, महाराज ! यह भी धर्म का प्रताप है।" साधु-'कई पति-पत्नी बीमार रहते हैं, पर धर्म ने अगर तुम्हारे बेटा-बहू को स्वस्थ न रखा होता तो तुम्हें पोते की चिन्ता न करनी पड़ती। तुम सन्तोष मानकर धर्म तो करतीं।" वृद्धा-“यह भी धर्म का ही प्रताप है।" साधु-"अच्छा, धर्म ने तुम्हें पैसा देकर बुरा किया । लोग तो पैसे-पैसे के लिए मोहताज रहते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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