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________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२५ इतने में तो दो घोड़े नजदीक आ गए। एक पर कविरत्न की पत्नी बैठकर आई थी, दूसरा खाली था । कविरत्न ने पूछा तो पत्नी ने कहा - " स्वामी ! आप मुझ से इजाजत लेकर यहाँ आए, किन्तु तुरन्त मुझे विचार आया कि मेरे पति तो वैर परम्परा समाप्त करने हेतु बलिदान देंगे, पर मेरे ये दोनों लाड़ले देवर पकड़े जायेंगे । पैदल चलकर कितनी दूर भागेंगे । सबेरे पुजारी को राजा को पता लगते ही वे घोड़े दौड़ाएँगे, आपके हत्यारों को पकड़ने के लिए, मेरे ये देवर पकड़े जाएँगे, राजा इन्हें फाँसी पर चढ़ाएँगे । अत: फिर आपकी और इनकी संतानों के बीच वैर-परम्परा चालू रहेगी, फिर आपके बलिदान का क्या अर्थ ? ऐसा विचार आते ही मैं अति शीघ्र दो घोड़े लेती आई हूँ । ताकि आपको मारने के बाद ये दोनों इन घोड़ों पर चढ़कर खुशी से दूर पहुँच जाएँ, जिससे न तो हमारे लड़कों को पता चले, न राजा को । और मैं आपकी मृतदेह के साथ ही चिता में जलकर समाप्त हो जाऊँ । जीवित रहने से फिर कोई पूछताछ करे तो कदाचित् मुँह से बात निकल पड़े तो महा अनर्थ हो जायगा ।" कविरत्न ने उसे धन्यवाद दिया, उसकी उदारता, बुद्धि एवं सतीत्व की प्रशंसा की । फिर उन दोनों से मारकर जल्दी काम निपटाने को कहा । परन्तु पति-पत्नी का संवाद एवं पवित्र भावना सुनकर दोनों का हृदय परिवर्तन हो गया । दोनों उनकी प्रशंसा करने और स्वयं को धिक्कारने लगे - " आप तो हमें पकड़वाने तथा मारने में भी समर्थ थे, फिर भी वैर की आग शान्त करने हेतु अपना बलिदान देने को तैयार हुए।" उनकी आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी । हाथ की तलवारें फेंक दीं । "भाई-भाभी आप ! दोनों की दीर्घदर्शिता और उदारता को धन्य है । आपने शक्ति एवं प्रभुता होते हुए भी हमें राजा से मृत्युदण्ड न दिलाकर स्वयं क्षमा धारण की । अतः आपको कोटि-कोटि धन्यवाद है ।" यों कहकर दोनों चरणों में गिर पड़े और अपनी तलवारें उठाकर अपनी गर्दन पर फिराने को तैयार हुए । कविरत्न ने तलवार उनके हाथ से लेकर दोनों को प्र ेम से समझाकर शान्त किया। दोनों को समझाकर घर लाए । आश्वासन दिया । राजा से कहकर दोनों को संगीतकार पद पर नियुक्त कराया । बन्धुओ ! समर्थ होते हुए भी कविरत्न की कितनी अद्भुत क्षमा, सहिष्णुता, उदारता और नम्रता थी ! इसी कारण दोनों भाइयों का हृदय परिवर्तन हो गया । यह है समर्थ होते हुए भी क्षमा करने का अद्भुत चमत्कार ! इसीलिए कहा है- 'शक्तौ सहनम् ' - प्रतीकार करने की शक्ति होते हुए भी सहन करना । भरत और बाहुबलि का जब मुष्टियुद्ध प्रारम्भ हुआ। तब सर्वप्रथम भरत ने बाहुबलि पर मुष्टि तानकर जमीन में उतार दिया, परन्तु बाहुबलि तुरन्त धूल खंखेर कर ऊपर आ गए । अब उनकी बारी थी मुष्टियुद्ध की । उन्होंने भारत पर मुष्टि तो तान ली पर फिर विचार आया - मेरी सृष्टि निश्चय ही भाई के प्राण लेकर रहेगी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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