SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८७ मांसाहार : मनुष्य के धर्म एवं स्वभाव के विरुद्ध मनुष्य का वास्तविक स्वभाव एवं धर्म दयालु होने तथा धर्मात्मा बनने में है न कि मुर्दा पशुओं का मांस खाने में । एक बार भी मनुष्य अगर अपनी उस तस्वीर की कल्पना करके देखे और बताए कि जब वह कसाई की दुकान पर लोथड़ों के बीच बैठा हुआ, अपने ही अंगप्रत्यंगों को निर्दयतापूर्वक कटवा रहा है, तब कैसा लगता है ? और यह भी बताए कि उनमें और कौओं में क्या अन्तर है, जो मांस की दूकान के आसपास एक टुकड़े के लालच से मंडराते हैं और बैठे रहते हैं ? और जरा उस कसाई को भी ध्यान से देखे, जो उस कटे हुए पशु को लगातार खण्ड-खण्ड कर रहा है, जिसके हाथों, पैरों, मुँह और वस्त्रों पर रक्त के छींटे और छिछड़े पड़े हैं। क्या उसमें और किसी पिशाच प्रतिमा में कोई अन्तर मालूम होता है ? कितनी भयंकरता और वीभत्सता है, इस दृश्य में ! इसका अनुभव और संवेदन निरामिषभोजियों को ही होता हो, ऐसा नहीं, मांसभोजी भी इससे प्रभावित होते हैं । किन्तु अपनी आत्मा की आवाज को स्वाद और संस्कारवश दबा देते हैं, महसूस करते हुए भी उपेक्षा कर देते हैं, देखकर अनदेखी का और समझते हुए भी नासमझी का स्वांग करते हैं । छोटे बालक को हर प्राणी के साथ दया का व्यवहार करने का उपदेश दिया जाए तो उसका हृदय मांसाहार के लिए या मांस के लिए पशु-पक्षियों का वध होते देखकर विद्रोह कर उठेगा । वह सह नहीं सकेगा – मांसाहार को या प्राणिवध को । नावेल्ड अलवानिया का एक छोटा-सा गाँव है, जहाँ अधिकांश कृषक रहते हैं। वहाँ के अधिकांश निवासी परम्परा से मांसाहार को स्वाभाविक भोजन मानते और करते हैं । ऐसे ही एक कृषक परिवार का छोटा-सा बालक 'न्यूनर रिचे' निकटवर्ती मिशन स्कूल में भर्ती हुआ । स्कूल में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त एक घंटा धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी जिसमें पादरी बाइबिल पढ़ाते, ऊँचे आदर्शों की चर्चा करते और ईसाईधर्म का गौरव बताते लेकिन यह सब एक ढर्रे के अनुसार केवल धर्मशिक्षा की खानापूर्ति करने तक ही सीमित था । कोई भी इन आदर्शों के अनुसार चलता । न था । एक दिन धर्मशिक्षा देते हुए पादरी ईसामसीह की सहृदयता और करुणा का विवेचन कर रहे थे कि - ईसा ने दया और करुणा की सरिता बहाई और अपने अनुयायियों को हर प्राणी के साथ दया का सहृदय व्यवहार करने का उपदेश दिया । सच्चा ईसाई वही है, जो दयालु हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy