SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५१ उपभोग करने में, दुर्व्यसनों के पोषण में, सिनेमा, नारी सौन्दर्य आदि अश्लील चीजों के प्रेक्षण में, कुसंग से आवारा बनकर व्यभिचार या अनाचार में पड़कर अपना पतन करने में, सैर-सपाटे, निरर्थक आमोद-प्रमोद, विलास आदि में अपने अभिभावकों के धन का अपव्यय करने में लगती है । बची-खुची शक्ति राजनैतिक नेताओं के चक्कर में पड़ कर वे हड़ताल, तोड़-फोड़, दंगे, आगजनी, जुलूस, नारेबाजी, घेराव आदि असामाजिक प्रवृत्तियों में खर्च कर देते हैं । फलतः वे अपने जीवन-निर्माण, इन्द्रियों और मन-बुद्धि आदि की शक्तियों के सदुपयोग, विद्याओं और कलाओं के अध्ययन, सांस्कृतिक ज्ञान आदि से वंचित रहते हैं । परिणाम यह होता है कि वे धर्म, संस्कृति, नीति, अध्यात्म आदि के यथार्थ ज्ञान और आचरण से, इनकी विशिष्ट शक्तियों से अनभिज्ञ रहते हैं । जब उन पर पारिवारिक दायित्व आता है तो वे लड़खड़ा जाते हैं, अपनी असफलता के लिए वे अभिभावकों को कोसते हैं, सामाजिक व्यवस्थाओं को भी । आवेश में आकर अपनी त्रुटि, गलती, अक्षमता और अयोग्यता के रंज का जहर वे बड़ों पर उड़ेलकर खीज और निराशा के शिकार हो जाते हैं । युवावर्ग में जो कर्तृत्व-शक्ति है, वह अकल्पनीय है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता । तरुणों की इन्द्रियों में शक्ति और क्षमता होती है, उनके मन में चिन्तन की शक्ति होती है, उनके शरीर में पौष्टिकता, स्फूर्ति, विकास, वेग एवं विशेष स्पन्दन होता है । युवावर्ग असम्भव कार्य को भी सम्भवता में परिणत कर सकता है। बुजुर्ग जिस कार्य को करने में झिझकते रहते हैं, युवक अपने अद्भुत साहस से उसे प्रत्यक्ष करके दिखा सकता है। व्यवहार में भी यह देखा जाता है कि युवक निठल्ले होकर बैठते नहीं, वे कुछ न कुछ करते रहते हैं । इतना होते हुए भी युवकों के प्रति बुजुर्गों की शिकायत है कि "वे निकम्मे हैं, विद्रोही हैं, उच्छृंखल हैं एवं असंतुष्ट हैं । उनकी कर्तृत्व शक्ति अच्छे कार्यों में, सेवा के विविध कार्यों में सुनियोजित ढंग से नहीं लगती । परिवार, समाज एवं राष्ट्र के लिए वे उपयोगी नहीं बन पा रहे हैं, धर्म, संस्कृति, नीति और अध्यात्म के वे प्रायः शत्रु बन रहे हैं ।" वास्तव में इन बातों में कुछ अंश तक सत्य हो सकता है । सचमुच; युवकों की सक्रियता समाज-विरोधी कार्यों या व्यक्तिगत मनोरंजन आदि में ही व्यय होती है जो निष्क्रियता से भी बढ़कर खतरनाक है । युवकों पर वृद्धों का प्रायः यह आक्षेप है कि उनमें निष्क्रियता, विद्रोही भावना, असंतोष और उच्छृंखलता है । अतः वे परिवार एवं समाज में खप नहीं सकते । दूसरी ओर युवकों का यह कहना है कि हम क्या करें ? दूरदर्शी अनुभव हमें होता नहीं, हमें जो भी अनुभव होता है, वह वर्तमान युग का अपने पारिपाश्विक वातावरण का होता है । तरुण को सक्रियता के दुरुपयोग से कैसे रोका जाएँ ? युवकों में निष्क्रियता कितनी है ? सक्रियता का दुरुपयोग कितना है ? इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy