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१९८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
"शाबाश है, सूने गजब का काम किया । जीवन का सच्चा आनन्द लूट लिया, पहुंच गया राजमहल तक !" यह सुनना था कि राजपुरुषों ने उसे भी पकड़ा और हाथ-पर काटकर गड्ढे में गाड़ दिया। इस प्रकार एक से दो हो गए।
निष्कर्ष यह है कि पाप करने वाली रानी, वह व्यभिचारी परस्त्रीगामी युवक, पाप करवाने वाली मालिन और अनुमोदन (प्रशंसा) करने वाला भंगेड़ी युवक सभी व्यभिचार के पापजन्य दण्ड को भागी हुए।
परनारी पैनी छरी, तीन ठौर ते खाय ।
धन छीजे जोवन हरे, मुए नरक ले जाय ।। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि जो व्यक्ति परस्त्रीसेवन करता है, वह राजकीय दण्ड से बच नहीं सकता। यश-कीर्ति तो समाप्त ही हो जाती है उसकी । आर्थिक दृष्टि से परस्त्रीगामी बर्बाद हो जाता है। धर्म-कर्म की दृष्टि से तो वह पिछड़ ही जाता है। कोई भी धर्माचरण उसका तब तक सफल नहीं होता, जब तक वह परस्त्रीसेवन न छोड़े। उसकी आत्मा का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। सत्य, अहिंसा, क्षमा, दया आदि अन्य गुण तो उससे कोसों दूर रहते हैं। परस्त्रीगामी का वंश या तो नष्ट हो जाता है, अगर उसके संतान होती भी है, तो वह भी प्रायः व्यभिचारी और कुसंस्कारी होती है। उसके पारिवारिक जीवन में परस्पर कलह, अशान्ति, कुसंस्कारों का सूत्रपात हो जाता है ।
परस्त्रीगामी का अपनी गृहिणी के साथ भी कोई मेल नहीं होता है। वह अपनी पत्नी के प्रति शंकाशील, अविश्वासी रहता है, पत्नी का तो अपने कामान्ध पति पर से विश्वास उठ ही जाता है। इस तरह परस्त्रीगामी का घर भी नरकागार बन जाता है। श्री तिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट कहा है
कुमति की आगर, दुःख की सागर,
गुणवन काटन फर्शी समानी। विष की बेलड़ी, सेलड़ी दाहक,
तेज पराक्रम पीलण घाणी ।। है परनारी महादुःखकारक,
खांडे की धार से तीक्षण जानी । छांडिये संग अनंग को जीत ले,
केत 'तिलोक' धारो गुरुवाणी ।।४८।। भावार्थ स्पष्ट है।
बन्धुओ ! परस्त्री-संग सर्वथा महाविनाश को न्यौता देने वाला है। इसीलिए महर्षि गौतम ने अपने अनुभवयुक्त जीवनसूत्र में बताया है -
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