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________________ ४४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जिस व्यक्ति में धर्मबल होता है, उसका शारीरिक बल इतना न होते हुए भी आत्मबल बढ़ जाता है। उस आत्मबल के आगे शरीरबल या दानवबल के धनी बड़ेबड़े लोग पराजित हो जाते हैं, झुक जाते हैं । धर्मबल कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में ? जीवन में धर्मबल की महिमा सर्वोपरि है। कभी यह अनुपम बल त्याग के रूप में अपना चमत्कार दिखाता है, कभी तप के रूप में, कभी चारित्र के रूप में, कभी अटूट श्रद्धा और विश्वास के रूप में, तो कभी भक्ति के रूप में, कभी परमार्थ के रूप में यह अपूर्व शक्ति आत्मा में प्रकट कर देता है। आशय यह है कि त्याग, तप, चारित्र, सम्यग्ज्ञान, श्रद्धा-विश्वास, भक्ति और परमार्थ, इन सात बलों से युक्त होकर धर्मबल आत्मा में अपूर्व शक्ति प्रगट कर देता है। इन सातों की वृद्धि करना ही धर्मबल की साधना है। आत्मरक्षा के लिए धर्मबल इन सातों हथियारों का उपयोग करता है । इन सात शक्तियों का संचय ही सुखदायक धर्मबल है। जैसाकि पंचाध्यायी में कहा गया है शक्तिः पुण्यं, पुण्यफलं सम्पच्च सम्पदः सुखम् । अतो हि चयनं शक्त येतो धर्मः सुखावहः ॥ "शक्ति पुण्य है । पुण्य का फल सम्पदा है । सम्पदा से सुख प्राप्त होता है। इसीलिए शक्तियों का संचय करना सुखकारक धर्म (बल) है।" त्याग की शक्ति के रूप में धर्मबल-त्याग में अमित सामर्थ्य है। जहाँ संसार के समस्त बल बेकार हो जाते हैं, अस्त्र-शस्त्र निकम्मे हो जाते हैं, वहाँ त्याग की अमोघ और अद्भुत शक्ति कारगर होती है। ___ भरत चक्रवर्ती ने जब अपने चक्रवर्ती पद की सम्पूर्णता के लिए अपने ६८ भाइयों को अधीनस्थ होकर रहने का सन्देश दिया तो वे अपने पिता तीर्थंकर भ० ऋषभदेव के पास निर्णय के लिए पहुंचे। उन्होंने कहा- "भरत के द्वारा सताये हुए तुम मेरे पास आये हो। उसे अपने भौतिक राज्य के टुकड़े पर अहंकार आ गया है। तुम अनेक दुर्गुण पैदा करने वाले इस भौतिक राज्य को तुच्छ समझकर इससे बचो। मैं तुम्हें आध्यात्मिक राज्य दिला देता हूँ जिसमें पूर्ण और सच्ची स्वाधीनता है, सब प्रकार की परतन्त्रताओं से मुक्ति है, आत्मनिर्भरता है। उसमें न युद्ध करना है, न किसी की अधीनता स्वीकार करना है।" भ० ऋषभदेव का उपदेश सुनकर ६८ भाई मुनि बन गए । भरत चक्रवर्ती को जब अपने ६८ भाइयों के मुनि बन जाने का समाचार मिला तो वह पश्चात्ताप करता हुआ भगवान ऋषभदेव के पास पहुंचा। आँखों से अश्रु धारा बहाते हुए भरत ने अपने मुनिवेषी भाइयों से हाथ जोड़कर कहा-"भाइयो ! मैं अपराधी हूँ। मैंने साम्राज्य के मद में मत्त होकर आप को बहुत कष्ट दिया है। आपने मेरे द्वारा दिये गये कष्टों को विचित्र तरीके से सहन किया है। चक्रवर्ती के १४ रत्नों के चक्कर में आकर ६८ भाइयों को मैं भूल गया। मुझे क्षमा कर दें।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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