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धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ४५
इस प्रकार त्याग की शक्ति के समक्ष चक्रवर्तित्व की भौतिक शक्ति झुक गई। १८ भाइयों की त्याग-शक्ति ने भरत के गर्व को चूर-चूर कर दिया। वास्तव में त्याग की शक्ति धर्मबल का मुख्य अंग है।
तप के रूप में धर्मबल-धर्मबल कभी-कभी तप की शक्ति के रूप में प्रकट होता है। वासुदेव श्रीकृष्ण के पुत्र ढंढणकुमार युवावस्था में विरक्त होकर भगवान् नेमिनाथ के चरणों में दीक्षित हो गये थे। विशाल द्वारिका नगरी में भिक्षाटन करते, परन्तु अन्तराय कर्मों के उदय से कहीं उन्हें मुनि-कल्प के योग्य शुद्ध आहार नहीं मिलता था। शरीर सूख गया। मन में व्यथा होने लगी। भगवान नेमिनाथ के चरणों में मनोव्यथा निवेदित की तो प्रभु ने कहा- "वत्स! शुद्ध भिक्षा नहीं मिली, इससे मन को खिन्न न करो। मन की प्रसन्नता ही सबसे बड़ी समाधि है। यह लाभान्तराय तुम्हारे पूर्वकृत कर्म का फल है ।" फिर उन्होंने लाभान्तराय-कर्मबन्धन की कारणभूत पूर्वजन्म-कथा सुनाई। उसे सुनकर ढंढण मुनि ने अभिग्रह किया-"भगवन् ! आज से जीवनभर मैं स्वलाभ से प्राप्त आहार ही ग्रहण करूँगा, पर-लाभ से प्राप्त आहार मेरे लिए अग्राह्य होगा।"
इस अभिग्रह के बाद भी प्रतिदिन ढंढण ऋषि भिक्षा के लिये जाते, परन्तु कहीं भी स्वलाभयुक्त शुद्ध भिक्षा न मिलती, फलतः वे खाली पात्र लौट आते । उनके मन में अब अधीरता नहीं थी। दुःख, उद्विग्नता और खिन्नता भी नहीं । प्रसन्नता लबालब थी। न जनता पर गुस्सा, न भाग्य पर दोष । समता और समाधि में लीन ढंढण ऋषि अपूर्व तप-शक्ति के पुज बन गये ।।
श्रीकृष्ण वासुदेव ने प्रभु-मुख से उनकी प्रशंसा सुनी तो श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। एक परदेशी सेठ ने श्रीकृष्ण की भक्ति से प्रभावित होकर इन्हें भिक्षा दी। ढंढण ऋषि ने जब सर्वज्ञ प्रभु से समाधान पाया कि “यह भिक्षा भी तुम्हें श्रीकृष्ण द्वारा किये गये वन्दना-स्तुति के प्रभाव से मिली है अत: स्वलाभ-प्राप्त नहीं है।" सुनते ही वे धीर-गम्भीर होकर स्वस्थता से विचार करने लगे। उस आहार को ग्रहण नहीं किया । इस प्रकार तप को अपूर्व शक्ति के प्रभाव से उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हुआ । यह धर्मबल उनमें तपःशक्ति के संचय के रूप में था।
धर्मबल : श्रद्धा-विश्वास के रूप में आत्मा या परमात्मा पर अथवा धर्म की शक्ति पर अखण्ड विश्वास या श्रद्धा भी धर्मबल बढ़ाती है । पाण्डवों को कौरवों की ओर से बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास दिया गया था। कौरवों का यह कार्य किसे अच्छा लगता ? पाण्डवों में भी युधिष्ठिर ही ऐसे थे, जिन्हें धर्म की शक्ति पर पूरा विश्वास था, इस कारण वे वनवास से घबराये नहीं। उनके
चारों भाई और द्रौपदी घबरा उठी थी। इनका कहना था, "हममें शक्ति मौजूद है, । फिर दुर्योधन आदि से डरने और वनवास के कष्ट भोगने की क्या आवश्यकता है ?"
शक्तिशाली होते हुए भी वनवास का कष्ट भोगना उनकी दृष्टि में उचित नहीं था।
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