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________________ २६६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता है, इनके स्वतन्त्र विचरण की बहुमुखी प्रवृत्ति पर अंकुश बनाए रखें । जैसे जिह्वन्द्रिय को लीजिए, युवक इससे अनिवार्य आवश्यक पदार्थ चखकर पेट में डालता है, वहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं, मगर जब वह भाँति-भाँति के स्वादिष्ट, चटपटे व्यंजनों की सदैव लालसा और लोलुपता रखता है, तब अपने शरीर, मन और आत्मा तीनों को खराब करता है । शरीर में अनेक रोगों को बुला लेता है, मन को रात-दिन स्वादलोलुप और विषयासक्त बनाये रखता है । आत्मा को कर्मों से भारी बना देता है। कभी-कभी स्वाद के चक्कर में पड़कर किसी मादक और विषैले पदार्थ का सेवन करके अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठता है । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे वडिस विभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥' "जो प्राणी रसों में तीव्र गृद्धि (आसक्ति) करता है, वह अकाल में विनाश पाता है। जिस प्रकार रागातुर होकर मछली आमिष के उपभोग में गृद्ध होकर कांटे में फंस जाती है, उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है।" इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में समझ लेना चाहिए। इन्द्रियों के साथ मन का स्पर्श होते रहने पर युवकों के लिए इन्द्रियनिग्रह की दुष्करता का एक प्रबल कारण है-इन्द्रियविषयों के साथ बराबर मन का स्पर्श होने देना । इन्द्रियाँ स्वयं अपने-अपने विषयों में स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होती हैं, वहाँ तक पापकर्मबन्ध या दोष नहीं है, किन्तु जब मन उनके साथ मिलकर एक पर राग और दूसरे पर द्वष करने लगता है, तब उनका निग्रह करना अत्यन्त कठिन होता है । गीता में कहा है इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुविमिवाम्भसि ॥ "इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषय में विचरण करती हैं, तब यदि मन उनके पीछे लग जाता है तो वह मनुष्य की प्रज्ञा को उसी प्रकार बलात् खींच (हरण कर) ले जाता है, जिस प्रकार जल में नौका को हवा खींच ले जाती है।" उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया है- प्रत्येक इन्द्रिय के साथ मन लग जाने से राग और द्वष बढ़ता है, वही इन्द्रियनिग्रह में बाधक बनता है “रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥" १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३२, गा० ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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