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________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १८६ ने डॉक्टर को बहुत भला-बुरा कहा, परन्तु पैसे के बल पर उसने लोगों का मुँह बन्द कर दिया। इस प्रकार की निरंकुशता भी परस्त्रीगमन के पाप का बढ़ावा देती है । ये और इस प्रकार के अन्य अनेक कारण हो सकते हैं, जो परस्त्री - सेवन या परस्त्री - आसक्ति के लिए जिम्मेदार हैं । मनुष्य इनसे बचता रहे और सावधान होकर धर्म-पुनीत पथ पर चले, तभी वह इस दुर्व्यसन से बच सकता है । परस्त्री में प्रासक्ति : सर्वनाश का कारण मैं अभी-अभी आपके समक्ष मानव के परस्त्रीसेवन के पाप में गिरने के १४ मुख्य कारणों का उल्लेख कर गया हूँ। इनमें से किसी भी कारण से परस्त्री में आसक्त होने वाला मनुष्य अपने लिए सर्वनाश के बीज बो देता है । सर्वनाश का अर्थ परस्त्री में आसक्त होकर सर्वनाश हो जाता है, इसका तात्पर्य इस प्रकार हैमनुष्य सब तरह से विनष्ट हो जाता है, किसी भी तरह से वह अपने आपको सुरक्षित नहीं कर पाता । जिस प्रकार किसी जहाज में जब सूराख हो जाते हैं तो उसमें पानी उन सूराखों से तेजी से अन्दर घुसने लगता है, उस समय जहाज सहित यात्रियों के सर्वनाश का समय उपस्थित हो जाता है - तन से, धन से, जन से, धर्म से तथा साधन आदि से भी । वह यात्री तन, मन, धन, जन, साधन और धर्म आदि सभी से वंचित हो जाता है । मन उसका कुण्ठित और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, इसलिए जहाज डूबते समय स्वयं की मृत्यु का दृश्य उपस्थित होने से वह घबरा जाता है, मन को स्थिर रखकर किसी भी प्रकार का शुभ या कल्याणमय विचार नहीं कर पाता, प्राय: आर्तध्यान में ही उसकी मृत्यु होती है, वह मृत्यु का सहर्ष आलिंगन नहीं कर सकता, न ही मृत्यु को समाधिमरण बना सकता है, धर्मध्यान, त्याग - प्रत्याख्यान, अनशन (संथारा) करके । और धर्म का भी कोई विचार नहीं कर पाता, क्योंकि उस समय आर्तध्यान की ही प्रधानता रहती है । इसलिए व्रत, नियम, त्याग आदि उस अन्धकाराच्छन्न अवस्था में नहीं कर पाता । ठीक यही बात परस्त्रीसेवन के दुर्व्यसन से होने वाले सर्वनाश के सम्बन्ध में समझिए । परस्त्री - आसक्त मनुष्य के जीवन का बेड़ा जब डूबने को होता है, तब सर्वनाश आयुष्य-बल का, बुद्धिबल का, का दृश्य उपस्थित होता है । उसके तन का मन का, दश प्राण-बल का, यशकीर्ति का, पारिवारिक जीवन का, वंश का, आध्यात्मिक गुणों का तथा अन्य सभी धनादि साधनों का सर्वनाश हो जाता है । परस्त्री - आसक्त व्यक्ति के जीवन का बेड़ा उक्त साधनों सहित समूचा विनष्ट हो जाता है । कुछ भी नहीं बचता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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