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२५८ : आनन्द प्रवचन भाग १२
पर नियन्त्रण करने की कला भी आनी चाहिए । एक ओर श्रम - साधना और एकाग्रता से शक्ति का संचय किया जाए और दूसरी ओर उसे इन्द्रिय-छिद्रों से निर्बाध बहने दिया जाए तो शक्तिशाली या आत्मबलसम्पन्न बनने का लक्ष्य दिवास्वप्न ही सिद्ध होगा । प्रयत्न और पुरुषार्थ का, साधना और एकाग्रता का सत्परिणाम इन्द्रियशक्तियों के निग्रह से ही मिलता है । जो अपने आवेगों, भावों और इच्छाओं को वश में रखता है, आत्म-विजय की सफलता का श्रेय उसे ही मिलता है | आवेगों को निरन्तर नियन्त्रण में रखने की शक्ति का नाम ही संयम है ।
आवेग एवं इच्छाएँ यद्यपि मन में पैदा होती हैं, किन्तु उनका प्रभाव और प्रतिक्रिया इन्द्रियों पर होती है ।
यद्यपि इन्द्रियनिग्रह सभी अवस्थाओं में कल्याणकारी और उपयोगी है, किन्तु तरुणावस्था में जबकि समस्त इन्द्रियों की शक्तियाँ पूर्णतः विकसित होती हैं, उस अवस्था शक्तियों का क्षरण रोकना परम आवश्यक होता है । इन्द्रियनिग्रह उन शक्तियों का ह्रास रोकने के लिए शक्तियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है । इन्द्रियनिग्रह एक प्रकार का बाँध है, जिसे तारुण्य में ही बाँधा जाना जरूरी है । अगर तारुण्य में इन्द्रियनिग्रह द्वारा शक्तियों का क्षरण नहीं रोका जाता तो निरंकुश बनी हुई इन्द्रियाँ मनुष्य को पतन के गड्ढे में गिरा देंगी । इन्द्रियों के अधीन बनने से आत्मविजय या आत्मोत्थान की बात हवा में रह जाएगी, आत्मपतन ही होगा, आत्मा की हार ही होगी । अमर्यादित और स्वेच्छाचारी इन्द्रियाँ जीवनलक्ष्य से गिरा देती हैं, इसीलिए इन्द्रियों का अत्यधिक भोग निन्दनीय एवं वर्जनीय माना गया है ।
सभी धर्मशास्त्रों में इन्द्रियनिग्रह का महत्त्व एक स्वर से स्वीकार किया गया है । जैनशास्त्र उत्तराध्ययन सूत्र में तथा भगवद्गीता में बताया गया है कि इन्द्रियनिग्रह करने से ही आत्मकल्याण, सुखसम्पन्नता, स्थितप्रज्ञता प्राप्त होगी । यौवन वय में इन्द्रियाँ are area और विषयभोगों में स्वच्छन्द भटकती हैं, इसलिए उस अवस्था में खासतौर से इन्द्रियों को संभालना है और अपनी शक्तियों को बर्बाद होने से बचाना है, ताकि आत्मविकास की यात्रा निर्बाधरूप से हो सके ।
तारुण्य में इन्द्रियनिग्रह : सुकर या दुष्कर ?
एक जंगली घोड़े को वश में किया जा सकता है, परन्तु जंगली बाघ के मुँह में लगाम क्यों नहीं लगाई जा सकती ? क्योंकि बाघ के स्वभाव में स्वाभाविक क्रूरता होती है, जो किसी भी तरह से स्वाभाविक रूप से आसानी से नहीं सुधारी जा सकती । इसके विपरीत जंगली घोड़ा, चाहे वह प्रारम्भ में कितना ही अड़ियल या उद्दण्ड क्यों न हो, थोड़े-से प्रयत्न से वश में किया जा सकता है । फिर तो कुछ दिनों बाद वह घोड़ा स्वयं ही आज्ञा पालन करना और प्रेम करना भी सीख जाता है । इसी प्रकार तरुण की प्रकृति में स्वाभाविक उग्रता, उद्दण्डता, या अड़ियलपन नहीं है । ये किसी न किसी सामर्थ्य, प्रभुता या शक्ति के मद के निमित्त से आए हैं । अगर जंगली घोड़े की तरह
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