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३४८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
अंकित हो जाती है, तब पुण्य की प्रबल राशि चारों ओर से संचित होती है । अहिंसा का सक्रिय आचरण सहजभाव से हो जाता है ।
उपनिषद् के एक ऋषि से पूछा गया कि "सारे दुःखमय संसार में कहीं सुख भी है या नहीं ? यदि सुख है तो वह मिले कैसे ?" ऋषि ने शान्त और मधुर स्वर में कहा - "यो वै भूमा तत्सुखम् नाल्पे सुखमस्ति ।" जो भूमा है, विराट् है, समग्रत्व है, वही सुख, शान्ति और आनन्द है; जहाँ मन का दायरा छोटा है, अपनत्व है, एकत्व है, संकीर्णता है, अल्पत्व है, स्वार्थ है, वहाँ सुख नहीं है, वहाँ है - दुःख, दैन्य, दरिद्रत्व । निष्कर्ष यह है कि मानव जहाँ मन में विराट् विश्वत्व या समग्रत्व की भावना लेकर चलता है, वहाँ सहज ही अहिंसाधर्मं चरितार्थ हो जाता है, और उसके फलस्वरूप उसे स्थायी सुख, शान्ति एवं संतोष प्राप्त होता है । उसकी भावना सबको सुखी, निरामय, देखने की सर्व कल्याण की होती है ।' उसकी वृत्ति दूसरों को जिलाकर जीने की होती है । वह सर्व सेवा, सर्वभूतदया, सर्वमंत्री और सर्वात्मौपम्य के सांचे में अपने जीवन को ढालता है । भला उसे दुःख कहाँ हो सकता है ? जो सारे विश्व के कल्याण, दया, सेवा और मैत्री महापथ पर अग्रसर होता है, उसके सुख की चिन्ता सारा विश्व करता है । वह अपनी चिन्ता विराट् अहिंसाधर्म की वेदी पर चढ़ा देता है । समग्रता की प्राप्ति के लिए अहिंसा के ही मुख्य चार चरण अपेक्षित हैं( १ ) सेवा, (२) दया, ( ३ ) करुणा या सहानुभूति और ( ४ ) परोपकार । सेवा एक धर्म है, जिसे हम अहिंसा का ही एक विधेयात्मक रूप कह सकते हैं । जहाँ निःस्वार्थ और निष्काम सेवा जीवन में आती है, वहाँ व्यक्ति अपना पृथक् अस्तित्व नहीं मानता, उसमें अर्पणता की भावना आ जाती है । वह अपने आप को समाज का एक नम्र अंग मानता है । ऐसा निःस्पृह सेवक अपनी शक्ति, योग्यता एवं क्षमता का कोई भी अंश बचाता या छिपाता नहीं है । दुःखित, पीड़ित, रुग्ण, पददलित को देखकर उसका हृदय हो उठता है । वह दया को अपनी भूमिका में रहते हुए चरितार्थ करने का प्रयास करता है । यहाँ भी वह संकीर्णता, क्षुद्रता, घेरा या पंथवाद से दूर रहता है । किसी दुःखी या पीड़ित को देखकर सहानुभूति प्रगट करना और सक्रिय करुणा का आचरण करना उसके जीवन का ध्येय होगा । जहाँ परोपकार या पर-सेवा निःस्वार्थ भाव से की जाती है, वहाँ जीवन में परमार्थ का सक्रिय एवं सच्चा स्वरूप आ जाता है ।
सेवा आदि द्वारा किसी दूसरे को सुखी बनाने में जो सुख, शान्ति, आत्मसंतोष होता है, उसकी तुलना में शारीरिक सुख तुच्छ एवं नगण्य है । तात्पर्य यह है कि इन चारों अहिंसा के चरणों से अक्षय आत्मिक सुख प्राप्त होता है, जिसकी तुलना में सांसारिक इन्द्रियजन्य सुख कुछ भी नहीं है ।
१ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥
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