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________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३४६ संयम के माध्यम से-- जहाँ जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम और नियंत्रण की या आत्मदमन (स्वेच्छा से नियमन) की वृत्ति आ जाती है, वहाँ स्वाभाविक रूप से धर्मपालन तो होता ही है, उससे यहाँ और वहाँ सर्वत्र सुख-शान्ति भी प्राप्त होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में खान, पान, वस्त्र, शयन, विविध सुख-साधन आदि पर संयम नहीं है, जो स्वेच्छा से नियमन नहीं कर सकता, जो स्वयं उपभोग-परिभोग की मर्यादा नहीं कर सकता, उपभोग की सीमा नहीं बाँध सकता, अपना जीवन उच्छंखल और अमर्याद बिताता है, उसे भला सुख कैसे हो सकता है ? यही कारण है कि अमेरिका जैसे धनाढ्य देशों में सब प्रकार के सुख साधन होते हुए भी वहाँ के नागरिकों में संयम, स्वैच्छिक नियमन की वृत्ति न होने से या उपभोग-परिभोग की सीमा न होने से वे मानसिक दुःखों से आक्रान्त रहते हैं, शारीरिक दुःख भी उन्हें घेरे रहते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी इन्द्रियों और मन पर लगाम रखते हैं, अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके उनके उपभोग और संग्रह पर संयम रखते हैं, इच्छाओं पर ब्रेक लगाते हैं, वे आत्मिक या स्थायी सुख से सम्पन्न हैं। संयमधर्म का सहज आचरण ही जीवन को सुखी बनाने का मूलमंत्र है। तप के माध्यम से-तप मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष है। वह जब निष्काम एवं निष्कांक्षभाव से जीवन में उतरता है, उसके पीछे किसी प्रकार के प्रदर्शन, यश, प्रसिद्धि या कीर्ति की इच्छा नहीं रहती तब अनेक प्रकार से सुखों की उपलब्धि होती है । तप का अर्थ है-स्वेच्छा से इन्द्रियों और मन को तपाना, आत्मा में पड़े हुए काम, क्रोध, तृष्णा, सांसारिक पदार्थों की भोगेच्छा आदि विकारों को-संचित मलों को तपस्यारूपी अग्नि से तपाकर आत्मा की शुद्धि (कर्मनिर्जरा) करना । धर्मपालन करने तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए एवं शील आदि की सुरक्षा के लिए जो भी कष्ट, परीषह, उपसर्ग आदि आ पड़ें, उन्हें समभाव से, शान्ति और धैर्य से सहन करना भी तप है । तप से आत्मा में सहनशक्ति बढ़ती है, आत्मा बलवान् बनती है, आत्म-विकास होता है। इस प्रकार की आत्म-तृप्ति से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उसे ही हम धर्म-सेवनजनित स्थायी सुख कह सकते हैं । वास्तव में तपस्या से शारीरिक सुखों को मिटाने, अपनी इच्छाओं को दबाने तथा भूख-प्यास, रहन-सहन आदि पर स्वेच्छा से नियंत्रण करने से, शरीर और पदार्थों के प्रति आसक्तिभाव समाप्त होने लगता है, शरीर और आत्मा का पृथक् अस्तित्व तथा उनकी पृथक् आवश्यकताएँ स्पष्टतः दिखाई देने लगती हैं। आत्मिक शक्तियाँ परिष्कृत एवं विकसित होने से विलक्षण सुखानुभूति होने लगती है। इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी में स्नान करने से सर्वोत्तम आत्मिक सुखों का अनुभव प्रत्यक्ष होने लगता है। इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा है __धम्मं निसेवित्त सह लहंति । धर्म की उपासना-सेवा करने से सुख की प्राप्ति होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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