SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ का लांछन लगा देती है ? अतः उन्होंने बीरबल से कहा- "मुझे आज समझ में आई, तोबा ! तोबा ! शराब इतने अनर्थ पैदा करती है । ऐसी शराब मुझे नहीं चाहिए । आज से मैं शराब न पीने की प्रतिज्ञा करता हूँ । इन्हें वापस लौटा दो । बोतल लाये हो तो फोड़ दो ।" अगर बीरबल युक्ति से समझाकर बादशाह की शराब न छुड़वाता तो मुस्लिमधर्म के अनुसार धार्मिक लोगों में अकबर को नापाक और निन्दनीय समझा जाता । अपने राज्य में, अपने मुस्लिम समाज में और अपने शाही परिवार में सर्वत्र उसका यश नष्ट हो जाता, वह अपयश का भागी बनता, इसी एक शराब की बदौलत शरीर आदि की दृष्टि से अयोग्य व रुग्ण बनकर जीना मद्यसेवन से यश नष्ट होने का यह दूसरा कारण है । मद्यपान से शरीर जीर्ण-शीर्ण. जर्जर, अशक्त और मोटा हो जाता है, शरीर में अनेक रोग हो जाते हैं, इन्द्रियाँ अपने विषयों का संवेदन करने या ठीक निर्णय करने में असमर्थ हो जाती हैं, व्यक्ति कुरूप, दृष्टिविकल एवं अंगविकल भी हो जाता है । इस कारण से मद्यपान करने वाले की लोगों में निन्दा होती रहती है- "देखो, उस पियक्कड़ का हाल !" इसीलिए श्री अमृतकाव्य संग्रह में मद्य को सर्वथा निषिद्ध बताते हुए कहा है वासित दुर्गन्ध रहे, दहे कीट वृन्द याते, परम अशुचि प्रिय लागत अजान को । शुद्ध बुद्धि खोय के, विकल भूमिपात करे, वसन विहीन तजे है कुल कान को । हे मुख लाल माखीवृन्दना वचन सुधी, माता बहन देखि बिसारी देत भान को । कहे अमीरख धिक् धिक् है जनम तासु, ऐसी दुःख जानि के तजौ रे मद्यपान को || भावार्थ स्पष्ट है | भला, मद्यपान से इस प्रकार की दुर्दशा में पड़े हुए व्यक्ति की कोई प्रशंसा करेगा या निन्दा ? उसके यशोगान गाएगा या अपयश के गीत ? इसी प्रकार मद्यपान के पहले बताये गये परिणामों के अनुसार जब मनुष्य जान-बूझकर मानसिक एवं बौद्धिक दृष्टि से अयोग्य, रुग्ण या पागल हो जाता है, तब क्या कोई उसे प्रशंसा पत्र देगा या उसकी सर्वत्र आलोचना होगी ? उसका कोई सत्कार तो करने से रहा, सर्वत्र धिक्कार की ध्वनि ही उसके कानों में पड़ेगी । अगर वह मद्यपान की आदत के कारण किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो चुका है, तो भी लोग उसको घृणा की दृष्टि से ही देखते हैं, कोई उसके यशोगान नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy