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वेश्या-संग से कुल का नाश : १३३
वेश्यासमागम के भयंकर परिणाम वेश्यागमन की सभी धर्मशास्त्रों ने एक स्वर से निन्दा की है, फिर भी इसका इतना प्रचार क्यों है ? प्राचीन राजा-महाराजाओं ने वेश्याओं का बहुत समर्थन किया
और जब-तब उन्हें प्रतिष्ठा दी, इस कारण शासक या धनिक दो ही वर्ग वेश्या-संग करते थे, परन्तु मुगल शासनकाल अथवा ब्रिटिश शासनकाल में मुगल बादशाहों के ऐय्याशी पूर्ण जीवन को देखकर धीरे-धीरे शासकों के अधीनस्थ अधिकारीगण या कुछ कर्मचारीगण भी वेश्या के शिकार बन गये थे। उसके पश्चात् यूरोप के ईसाई राष्ट्रों का जब मुस्लिम राष्ट्रों के साथ धर्मयुद्ध हुआ, अथवा १६१४ से १९१८ तक विश्वयुद्ध चला उस समय योद्धा लोगों के मनोरंजन एवं उनकी काम-लिप्सा शान्त करने हेतु वेश्याओं को बुलाया जाने लगा। उनका पड़ाव वहाँ लगता था, जिसमें सैनिकों को अपने क्रम के अनुसार उनके पास जाने का अवसर दिया जाता था।
इसके अतिरिक्त पर्यटक लोगों के सुखोपभोग के लिए भी बाद में वेश्याओं की उपयोगिता मानी गयी। साथ ही प्रवासी व्यापरियों या बड़े शहरों में काम करने वाले श्रमजीवियों की कामवासना की पूर्ति के लिए भी वेश्याओं का जाल शहरों में बिछाया जाने लगा।
आज तो कलकत्ता, बम्बई आदि बड़े-बड़े शहर इन रूपाजीवियों के अड्डे बन गये हैं, वे रूप की हाट में बैठकर आम आदमियों को अपने शृंगार, रूप आदि से मोहित करके कामतृप्ति का सौदा करती हैं। क्या कोई बुद्धिमान यह बता सकता है, कि वेश्याओं की उपयोगिता की ये सब युक्तियाँ समाज के चरित्र-निर्माण में, परिवार के संस्कार-सिंचन में, राष्ट्र के सदाचार को सुदृढ़ करने के लिए उपयुक्त हैं ? वास्तव में वेश्या-संस्था की इन कार्यों में उपयोगिता कोई अर्थ नहीं रखती, जबकि परिवार, समाज और राष्ट्रगत कुल की जड़ों में ये घुन का काम करती है।
__मैं पहले यह बता चुका हूँ कि जितना-जितना वेश्या-संस्था को प्रोत्साहन दिया जाएगा, उतना-उतना पारिवारिक कुल, राष्ट्र कुल एवं सामाजिक कुल पर घोर संकट है। बल्कि सैनिकों, विदेशी पर्यटकों या प्रवासी व्यापारियों व श्रमजीवियों को वेश्यासेवन की खुली छूट देने से उनका अपनी पत्नियों के प्रति व्यवहार अच्छा नहीं होता। कई बार वे अपनी पत्नियों पर अत्याचार करते देखे जाते हैं, उनके चरित्र पर शंका करते हैं और उनकी हत्याएँ भी कर बैठते हैं, इन सबका कारण है-वेश्यासम्पर्क।
वेश्यासक्ति : सर्वनाश का कारण एक बार जिनकी आदत वेश्यासेवन की लग जाती है, फिर वे धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, आत्मा-परमात्मा आदि को कुछ नहीं मानते, न धर्ममर्यादा को मानते हैं । फलतः चाहे जिस कुलीन, रूपवान एवं भोली-भाली निर्धन युवती को फूसलाकर अपनी रखेल, पासवान या उपपत्नी के रूप में रखकर उसे भ्रष्ट करते हैं, स्वयं भ्रष्ट होते हैं, और अपने समस्त कुल को कलंकित करते हैं।
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