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________________ १३२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जूठा भोजन तो कौए, कुत्ते आदि ही खाते हैं। पशुसम विवेकभ्रष्ट कामी लोगों के सिवाय वेश्यासेवन कोई नहीं करता । वेश्या तो बीमार, कोढ़ी, चोर, उचक्के आदि सभी के साथ सहवास करती है। जिसने पंचों की साक्षी से किसी कुलीन पतिव्रता नारी से विवाह किया है, भला वह कुलीन एवं श्रेष्ठ आचार-विचारसम्पन्न पुरुष वेश्या के साथ समागम कर सकता है ? अगर तुममें यह ऐब हो तो शीघ्र ही छोड़ देना। यह दुर्व्यसन हमारे कुल का सर्वनाश कर देगा, हमारे कुल के सभी श्रेष्ठ आचार-विचार, संस्कार आदि का सफाया कर देगा।" पिता की बात सुनकर लड़का लज्जित हो गया, नीचा मुंह करके बोला- 'आपकी बात सत्य है।" फिर भी वह इस निन्द्य एवं कुलनाशक दुर्व्यसन को छोड़ न सका । वेश्या के मोह में वह अन्धा हो गया था । वह किसी न किसी तरह सबकी नजर बचाकर प्रतिदिन वेश्या के यहाँ पहुँच ही जाता। पिता ने उसकी यह दुष्प्रवृत्ति देखकर फिर एक दिन उससे कहा "बेटा ! मैंने सुना है, तुम किसी वेश्या में आसक्त हो । परन्तु तुम जानते हो कि वेश्या के यहाँ चोर, डाकू, हत्यारे आदि सब जाते हैं । तुम भी उसी रास्ते से रातबिरात अकेले जाते हो, अगर असमय में तुम्हें अकेले जाते देख कोई व्यापारी-पुत्र होने से धन के लोभ में आकर मारे-पीटे, हत्या कर डाले, या अपहरण करके ले जाए तो हमारे लिए तुम्हारे बिना सर्वत्र अंधेरा हो जाएगा। इसलिए कुलदीपक ! तुम असमय में मत जाया करो । अगर तुम्हरा मोह वेश्या से न छूटे तो तुम प्रातःकाल उसके यहाँ जा सकते हो।" श्रेष्ठि-पुत्र अपने पिता की सहमति पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। सोचा- 'अपना क्या है ? रात को न जाकर सुबह ही जाया करूंगा।' सबेरा होते ही लड़का वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर वेश्या के यहां पहुँचा । देखा तो उसका रूप बिलकुल विकराल और घृणित-सा लगा। उसके बाल बिखरे हुए, गले में डाले हुए फूल मुरझाए हुए, काजल के दाग मुंह पर लगे हुए थे, वह बिलकुल चुडैल-सी बेडौल, बदसूरत लगती थी। उसके पास ही शराब पीने से हुई के पड़ी थी। जूठे बर्तनों का ढेर पड़ा था, मक्खियाँ भिन-भिना रही थीं। हुक्का पीकर जगह-जगह कफ थूका हुआ था। वेश्या का यह रंग-ढंग देखकर सेठ का लड़का हक्का-बक्का रह गया । सोचा, कहाँ सायंकालीन अप्सरा-सा रूप और कहाँ यह घृणाजनक रूप । इन दोनों में वास्तविक रूप कौन-सा है ? वेश्या का असली रूप तो यही है । पिताजी ने बिलकुल सच कहा था- ऐसी घृणित, निन्द्य, नीच वेश्या के यहाँ जाना कुलीन गृहस्थों का काम नहीं है। वह थोड़ी देर अनमना-सा होकर बैठा, फिर यह निश्चय करके चल दिया 'अब मैं कभी वेश्या के यहाँ नहीं जाऊँगा।' बन्धुओ ! श्रेण्ठिपुत्र पिता के समझाने से तथा वेश्या के असली रूप का अनुभव करने से शीघ्र ही इस दुर्व्यसन से छूट गया, अन्यथा सारे कुल का यश, धन, संस्कार, श्रेष्ठ आचरण धूल में मिल जाता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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