SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ को भूल न जाऊँ' अतः वह सुखोपभोग के साधनों में अलिप्त रहने का अभ्यास करने लगी । अपने भूतपूर्व भील कन्या के वेष में वह प्रभु से एकान्त में प्रतिदिन प्रार्थना करने लगी-"प्रभो ! मैं इस राज्य-सुख में लिप्त न हो जाऊँ, राजसत्ता के अभिमान में आकर मैं अपनी पूर्वस्थिति को न भूल जाऊँ, किसी को अभिमानवश कुचल न हूँ। यह जो कुछ सुखोपभोग सामग्री मुझे मिली है, यह मेरी नहीं, फिर इसका अभिमान किस बात का ? प्रभो ! मुझे ऐसी सद्बुद्धि दें, जिससे सदैव पति को परमेश्वर मानकर उनकी भक्ति एवं मेरी अन्य बड़ी बहनों (सौतेली रानियों) की सेवा कर सकू। मुझमें जरा भी दुर्गुण प्रविष्ट न हो । मुझमें सदैव नम्रता रहे । मैं सबसे छोटी बनकर रहूँ। प्रभो ! मेरे जीवन में सदा सद्गुणों का सिंचन करना ।" भीलनी रानी इस प्रकार प्रभु से प्रार्थना करती है। दूसरी रानियों ने इस नई भील रानी की यह कर्यवाही देखी तो ईष्या के मारे राजा के कान भरने लगी कि "देखा, आपकी नई रानी को ! यह बहुत यन्त्र मन्त्र जानती है, आपको वश में करके पागल बना देगी यह !" राजा ने उसके कमरे की खिड़की के पास खड़े होकर यह सब प्रार्थना के उद्गार सुने तो गद्गद हो गया । वह रानी पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। दूसरी रानियों से कहा- "तुम्हारी दृष्टि में जहर भरा है, इसी कारण मुझे भ्रम में डाल दिया। इस रानी की भावना शुद्ध है, यह तो प्रतिदिन भगवान से सुन्दर प्रार्थना करती है।" राजा ने भीलरानी के आनाकानी करने पर भी आग्रहपूर्वक पटरानी का पद दिया। __ वास्तव में देखा जाय तो इतनी सुखोपभोग सामग्री के बीच में रहकर अपनी इच्छाओं का निरोध करना भीलरानी के लिए बड़ा कठिन था, परन्तु वह अपनी आत्मसाक्षी से प्रतिदिन जागृतिपूर्वक अपनी सादगी और सद्गुणों के लिए प्रभु से प्रार्थना करती थी, इस कारण इच्छाओं का निरोध करने में कोई भी अड़चन न आई। परम भक्ता मीराबाई जैसी चित्तौड़ के राणा को महारानी के लिए इतने विरोधों के बीच राजसी वेश-भूषा, शृंगार प्रसाधन आदि सब इच्छाओं का त्याग करना कितना कठिन था ? परन्तु वह तो स्वयं कृष्ण-भक्ति के रंग में रंग गई और सर्वस्व कृष्णार्पण कर दिया । प्रतिक्षण जागृति रखने से उसके लिए भी इच्छानि रोध सुकर हो गया, दुष्कर न रहा । । वास्तव में उच्चस्तरीय मनीषियों का जाग्रत चिन्तन रहा है कि बाजार में दुकानों पर कई सुन्दर-सुन्दर चीजें दिखाई देती हैं। किन्तु यदि हम मन को अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त न करने हैं, उसे किसी को अच्छा या बुरा न बताने दें तो उन वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा ही पैदा नहीं होगी। इच्छाएँ उठती हैं, वहीं से हमारी विविध शक्तियों के क्षरण का आरम्भ उनकी पूर्ति के लिए हो जाता है । अत्तः यहीं से इच्छाओं के सरोवर पर संयम का तटबन्ध बाँधा जाना चाहिए । ताकि शक्तियों का क्षरण रोक कर वे आत्मिक प्रगति की दिशा में लगायी जा सकें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy