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________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २६१ नोंद आ रही थी । लक्ष्मण को वे अपने पुत्र-समान ही मानती थीं । लक्ष्मण बैठे हुए थे, सीता लक्ष्मण के उत्संग को सिरहाना बनाकर सो गईं। परन्तु पक्के इन्द्रियजयी लक्ष्मण के मन में जरा भी विकार न आया, मातृभावना जो थी। (३) तीसरा प्रसंग है-सीताहरण के बाद का। श्रीराम सीता के वियोग में चिन्तामग्न होकर वन-वन में घूम रहे थे । सीता की खोज में वे व्याकुल थे । एक जगह श्रीराम को कुछ गहने पड़े हुए मिले । शोकातुर श्रीराम ने लक्ष्मण से पूछा'भाई लक्ष्मण ! देखो तो ये आभूषण सोता के ही हैं क्या ? क्या तुम पहचान सकते हो?" लक्ष्मण ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--- नाऽहं जानामि केयूरे, नाऽहं जानामि कुण्डले । नपुरे त्वभिजानामि, नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥ "भैया ! मैं सीतामाता के हाथ में पहने जाने वाले बाजूबंदों को नहीं पहचानता और न ही कानों में पहनने के कुडलों को पहचानता हूँ। किन्तु मैं प्रतिदिन मातृभाव से उनके चरणों में वन्दन करता था, इसलिए चरणों में पहने जाने वाले नूपुरों (नेऊर) को पहचानता हूँ।" यह है, श्री लक्ष्मणजी का नेत्रन्द्रिय-निग्रहभाव ! जिसे ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है । लक्ष्मणजी के द्वारा किये जाने वाला इन्द्रियनिग्रह जागृतिपूर्वक था इसलिए दुष्कर होते हुए भी सुकर हो गया। इन्द्रियनिग्रह : क्यों दुष्कर ? कैसे सुकर ? यहाँ स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है कि इन्द्रियनिग्रह और वह भी उठती हुई तरुणाई में क्यों दुष्कर हो जाता है ? जबकि तरुण यह जानता है कि इन्द्रियनिग्रह से बहुत बड़े लाभ हैं । उससे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक सभी तरह का लाभ इसी जन्म में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, अगले जन्म में तो उसका लाभ मिलता ही है। इन्द्रियनिग्रह की दुष्करता का सर्वप्रथम कारण है-जागृति का अभाव । मैंने अभी. अभी बतलाया था कि अगर इन्द्रियों के उपयोग के समय विजय सेठ-विजया सेठानी, या वीरवर लक्ष्मण की तरह प्रतिक्षण जागृति रखी जाए तो यौवन में इन्द्रियनिग्रह आसान हो जाता है । परन्तु आज कितने ऐसे तरुण हैं, जो इस प्रकार की जागृति रखते हैं ? अधिकांश युवक-युवतीगण इन्द्रियनिग्रह के बारे में प्रायः अजागृतदशा में रहते हैं । कोई भी प्राणी किसी इन्द्रिय के विषय में असावधान, प्रमादी या मोहवश आसक्त हो जाएगा तो तुरन्त ही उसका विनाश निश्चित है । गरुड़ पुराण के अनुभवी रचयिता कहते हैं कुरंग-मातंग-पतंगा-भगाः मीना हताः पंचभिरेव पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥ "हिरण, हाथी, पतंगा, भौंरा और मछली, ये पांचों क्रमशः श्रोत्रेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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