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________________ जीवन अशाश्वत है : २६६ भी करने-धरने की स्थिति में नहीं होता, वह तो जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है । प्राण या श्वासोच्छ्वास भी अपने आप में अकेले नहीं रहते, वे रहते हैं आत्मा के साथ ही; और तभी वे सक्रिय होते हैं । प्राणरहित या श्वासोच्छ्वासरहित होने का अर्थ है-आत्मा से रहित मुर्दा शरीर । इसलिए आत्मा से रहित केवल शरीर से युक्त होने का अर्थ है-प्राणरहित निर्जीव हो जाना । यह सब जीवन नहीं है । निष्कर्ष यह है कि जीवन का अर्थ हुआ-आत्मा से युक्त शरीर; मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास के सहित चेष्टा करता हुआ एक पदार्थ । किन्तु जीवन का अर्थ इतने में ही परिसमाप्त नहीं होता । जीवन के अनुरूप मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर एवं शरीर के अंगोपांगों से विविध कार्य करते हुए. हलचल करते हुए तत्त्व भी जीवन के ही अंग हैं। संक्षेप में कहें तो मनुष्य की आत्मा के साथ लगे हुए शरीरादि अजीव, तथा उसके विविध कार्यों के कारण होने वाली पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बंध-मोक्ष आदि तत्त्वों से संलग्न स्थितियाँ तथा बाल्य, युवा एवं वृद्ध अवस्थाएं मानव-जीवन है। ___ यह जीवन अशाश्वत है या शाश्वत ? जीवन और जीव ये दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं । जीव से जब केवल आत्मा का बोध होता है, तब वह नित्य या शाश्वत होता है, और जब शरीर संयुक्त आत्मा का बोध होता है, तब वह अनित्य होता है, क्योंकि वह शरीर से संयुक्त होने के कारण अपने शुभाशुभकर्मवश नानागतियों और योनियों में भ्रमण करता रहता है, इसलिए अनित्य, अशाश्वत, क्षणभंगुर, परिवर्तनशील या अध्र व होता है । यहाँ जीवन की चर्चा है । जीवन नित्य तो तब होता, जब वह सिर्फ आत्ममय होता, परन्तु यहाँ तो आत्मा के साथ कई अन्य तत्त्व भी लगे हुए हैं, वे तत्त्व परिवर्तनशील, क्षणभंगुर, अनित्य एवं अशाश्वत हैं, इसलिए जीवन भी अशाश्वत है। मनुष्य-जीवन के साथ शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अंगोपांग, जन्म-मरण, बचपन, जवानी, बुढ़ापा, प्राण, श्वासोच्छ्वास आदि लगे हुए हैं। फिर विभिन्न शुभाशुभ कर्मों से युक्त होने के कारण पुण्यवान्, पापी, धार्मिक, अधार्मिक, धनिक, निर्धन, विद्वान, मूर्ख, व्यापारी, सैनिक, पण्डित और शिल्पकार आदि अनेक विशेषण लग जाते हैं। और ये सब नाशवान पर्याय हैं, ये बदलते रहते हैं, नष्ट होते रहते हैं, इसलिए मानव-जीवन को अशाश्वत कहना ही ठीक है, शाश्वत कहना युक्तिसंगत नहीं। यह एक अटल सिद्धान्त है कि जो उत्पन्न होता है, उसका विनाश अवश्य ही होता है। द्रव्य की अपेक्षा से भले ही सभी वस्तुओं को नित्य माना जाए, परन्तु पर्याय की-परिणमन की अपेक्षा से कोई भी वस्तु शाश्वत-नित्य नहीं है। इसीलिए कातिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्ट कहा है जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जुव्वणं जरासहियं । लच्छी विणाससहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥ ५॥ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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