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________________ २२८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ प्रकृति की लीला का अवलोकन करते-करते । तभी उनके सिर पर एक पत्थर आकर लगा, खून बहने लगा। वे आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे कि पत्थर क्यों और किसने फेंका है ? अंगरक्षक अपराधी को खोजने के लिए दौड़े और शीघ्र ही एक अधेड़ महिला को पकड़कर लाए, जिसकी गोद में बच्चा था, जो भूखा प्रतीत हो रहा था। महिला काँप रही थी कि पता नहीं कितनी सजा मिलेगी ? आश्वासन देकर पूछा-'बताओ बहन ! पत्थर क्यों फेंका था ?" उसने रोते हुए कहा- "मैं विधवा हूँ। केवल मजदूरी पर गुजर करती हूँ। कल काम नहीं मिला। बच्चा भूखा था, इसकी भूख मिटाने हेतु पत्थर मारकर जामुन तोड़ रही थी कि पत्थर जामुन के न लगकर आपको लग गया । मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ।" महाराजा गम्भीर विचार में पड़े। जेब से एक हजार रुपये निकाल कर विधवा के हाथ में दिये । और न उपालम्भ दिया न कठोर दण्ड, केवल क्षमादान दिया। विधवा अन्तर् से आशीर्वाद देती हुई चली गई। यह था एक समर्थ राजा का क्रोधावेश के प्रसंग पर क्षमा का उदार आदर्श । सचमुच क्षमा जब अन्तर् में आती है तो सामने वाले व्यक्ति की दुरवस्था, करुण स्थिति आदि पर भी विचारने को प्रेरित करती है, करुणा, सहृदयता आदि भाव उमड़ आते हैं। समर्थ पति की पत्नी के प्रति क्षमा जो पति पुरुषत्व के मद से आक्रान्त होता है, वह अपनी पत्नी को जरा-सी गलती पर क्षमा करने को तैयार नहीं होता । लेकिन जो पति और पत्नी का समान हक मानते हैं, एक-दूसरे के प्रति उदार होते हैं, अपने जीवन का निर्माण भी पत्नी के निमित्त से मानते हैं, वे पत्नी पर क्रोध के प्रसंग पर भी क्रोध नहीं करते, क्षमाशील रहते हैं। ___ एक बार सुकरात की पत्नी ने गुस्से में आकर उनका कोट फाड़ डाला । मगर वे शान्त रहे और पूर्ववत् मुस्कराते रहे । उन्होंने क्रोध के प्रसंग पर भी क्रोध न किया। उनका एक मित्र, जो उनसे मिलने आया था, यह सब देखकर बोला- "आपने इनसे कुछ कहा क्यों नहीं ?" सुकरात बोले-"जैसे सईस बिगडैल घोड़े को साधता है, वैसे ही मैं भी इसे सुधारने की कोशिश करता हूँ। दूसरे, इसकी बदमिजाजी झेलकर दुनिया का दुर्व्यवहार सहना सीखता हूँ।" वास्तव में प्रत्येक पति अपना पुरुषत्व शक्ति का मद छोड़कर पत्नी के व्यवहारों को क्षमा करता जाए, तो आधी दुनिया सुधर सकती है । मनुष्य की अपनी शक्ति क्रोध, आवेश और कलह में न लगकर आध्यात्मिक पुरुषार्थ में लग सकती है। शक्तिशाली लोग बाह्य शत्रुओं को जीतने का प्रयत्न करते हैं, वैसे ही आभ्यन्तर शत्र ओं-काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर आदि को जीतने का प्रयत्न करें तो उन्हें सहस्र मल्ल की तरह शाश्वत विजय प्राप्त हो सकती है। सहस्रमल्ल पहले कनथरथ राजा के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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