SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ भी उत्कट भावों के कारण बहुमूल्य हो जाता है । महाभारत (शान्तिपर्व) में इसी बात की पुष्टि की गई है सहस्रशक्तिश्च शतं, शतशक्तिर्दशाऽपि च। दद्यादपश्च यः शक्त्या, सर्व तुल्यफलाः स्मृताः॥ "यदि हजार रुपयों की शक्ति वाले ने सौ रुपये, सौ रुपये की शक्ति वाले ने दस रुपये दिये, और किसी ने अपनी शक्ति-अनुसार थोड़ा-सा पानी भी दे दिया तो ज्ञानी पुरुषों ने इन सबका फल समान बतलाया है।" वास्तव में उस दरिद्र के हाथ से दान दिया जाना महत्त्वपूर्ण है, जिसके पास कुछ साधन भी न हो। जिसके मन, बुद्धि और जीवन का विकास नहीं हुआ है, ऐसे दरिद्र की ओर से भावना से दिया गया अल्प दान बहुत ही दुष्कर और महत्त्वपूर्ण बताया है। "अप्पास्मा दक्षिणा दिन्ना, सहरसेन समं मताः" -थोड़े में से जो दान दिया जाता है, वह हजारों-लाखों के दान की बराबरी करता है। गुजरात में चौलुक्यवंशी राजा सिद्धराज का शासन था। उनकी माता मिणलदेवी ने सोमनाथ तीर्थ की यात्रा की । वहाँ सोमनाथ तीर्थ पर सवा करोड़ मुहरें दान में दीं। उसी तीर्थ में एक दरिद्र महिला दर्शन करने आई। माता मिणलदेवी से किसी ने कहा-"माताजी ! अपने पुण्य के बदले इस गरीब महिला का पुण्य ले लो।" राजमाता ने उससे पूछा- "इसका पुण्य मुझसे प्रबल क्यों है ?" उसने कहा- "इसके कल तीर्थ का उपवास था। घर से यह थोड़ा-सा नमकोन सत्त लेकर आई थी। उसमें से आधे सत्त से सोमनाथ की पूजा की। आधे में से आधा अतिथि को दिया और शेष चौथाई सत्त से स्वयं ने पारणा किया। अपने पास जो था, उसमें से बहुत थोड़ा-सा अपने लिए रखकर शेष सब दान-पुण्य के कार्य में लगा दिया । बताइए, आपका पुण्य अधिक है या इस महिला का, जिसने उत्कट भाव से बहुत अधिक दान दे दिया है ?" राजामाता को स्वीकार करना पड़ा कि मेरे दान से बढ़कर इस धन से दरिद्र, किन्तु भावना से समृद्ध व उदार महिला का दान है। वास्तव में जिस व्यक्ति के लिए धन का अधिक दान करना कठिन होता है, ऐसा दुष्कर दान वह अपनी शक्तिभर किसी भी साधन का करता है तो धन्य हो जाता है । उसके दान को सभी महान् पुरुषों ने महत्त्व दिया है । सर्वस्ववान : दुष्करतम और महत्तम परन्तु इससे भी बढ़कर एक और दान है, जो स्वल्प साधन-सम्पन्न गरीब के लिए तो बहुत ही दुष्कर है, वह है सर्वस्वदान । सर्वस्वदान में व्यक्ति अपने पास जो भी कुछ होता है वह दे देता है । तथागत बुद्ध के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पृष्ठ आपके समक्ष ला रहा हूँ तथागत बुद्ध को जब आत्मज्ञान हुआ तो उनके शिष्य अनाथपिण्ड ने उनसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy