SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६६ कान दाँतों से जोर से दबा दिया । माँ दर्द के मारे चीखने लगी, पर उसने कान नहीं छोड़ा । सिपाहियों ने जबर्दस्ती उसका मुंह हटाया, परन्तु कान माधो के मुंह में ही रह गया । माँ लहूलुहान होकर माधो को गालियाँ देने और कोसने लगी । लोग भी उसे भला-बुरा कहने लगे । उस समय माधो ने कान को थूककर जोर से कहा“भाइयो ! मेरे कार्य से आपको आश्चर्य हुआ होगा । मैं आज फाँसी पर चढ़ाया गया हूँ, इसका कारण मेरी माँ ही है ।" लोग उसकी बात को ध्यान से सुनने लगे । उसने तिल चुराने से लेकर बड़ी-बड़ी चोरियाँ करने तक की तथा माँ के प्रोत्साहन की बात अथ से इति तक सुना दी । लोग उसकी बात सुनकर आश्चर्य में डूब गए और उसकी माँ को धिक्कारने लगे । इस उदाहरण से स्पष्ट है कि चोरी का प्रारम्भ बचपन में छोटी-मोटी चोरी से होता है और एक दिन बढ़ते-बढ़ते नामी चोर की श्रेणी तक पहुँच जाता है । यही चोरी के जन्म और संवर्द्धन की कथा है । अगर चोरी को प्रारम्भ से ही माता-पिता या अभिभावकों द्वारा रोक दिया जाता है, या उसे प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है तो चोरी आगे नहीं बढ़ पाती । परन्तु कच्ची उम्र में पड़े हुए चोरी के संस्कार यौवन और प्रौढ़ अवस्था में परिपक्व और बद्धमूल हो जाते हैं । प्रस्तुत में किस प्रकार की चोरी त्याज्य ? यों तो चोरी के सूक्ष्म और स्थूल कई प्रकार शास्त्रों में वर्णित हैं । महाव्रती साधु के लिए चोरी ( अदत्तादान) मन-वचन-काया तीन योगों से और कृत-कारितअनुमोदित रूप (तीन करण ) से त्याज्य होती है । जबकि अणुव्रती श्रावक के दो करण, तीन योग से अर्थात् - मन-वचन काया से स्थूल चोरी करने-कराने का त्याग होता है । परन्तु यहाँ तो व्रतबद्ध श्रावक की अपेक्षा भी नीची भूमिका है, नैतिक जीवन की भूमिका है । चोरी अनीति है, वह नैतिक जीवन की भूमिका में सह्य नहीं होती । यहाँ उसी चोरी का त्याग अनिवार्य है, जिसे समाज में स्थूलदृष्टि वाले लोग चोरी कहते हैं, जिससे सरकारी कानून द्वारा व्यक्ति दण्डित होता है, जो कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है, जिसे लोग घृणित और निन्दित समझते हैं । जिस चोरी से व्यक्ति लोकनिन्दा का पात्र बनता है । ज्ञानार्णव में इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहा हैगुणा गौणत्वमायान्ति, याति विद्या विडम्बनाम् । चौर्येणाऽकीर्तयः पुंसा शिरस्याधत्ते पदम् ॥ १ — चोरी करने से मनुष्य के गुण गौण हो (दब) जाते हैं, उसकी विद्या निकम्मी हो जाती है, और अकीर्तियाँ उन पुरुषों के सिर पर अपना पैर जमा लेती हैं ।' सारांश यह है कि जिस चोरी से मनुष्य में निहित दया, क्षमा, सेवा, परोपकार आदि गुण ढक जाते हैं और उसकी शिक्षा-विद्यां सभी निन्द्य हो जाती है, सिर्फ १. ज्ञानारणव, पृ० १२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy