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१५० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
. एक बार कई कुत्ते ६५ दिन तक भूखे रखे गये। बाद में वे मर गय । अमेरिका के वाल्डर हॉस्पिटल में बन्दरों को ६-६ घंटे बेहोश रखा गया। चेतना आने पर उनके मस्तिष्क का कुछ अंश काट कर उसमें बिजली के करेंट दौड़ाये जाते ६-६ घंटे तक; बन्दर चीखते, उछल-कूद करते पर उन्हें ऐसी निर्दयता से बाँधा जाता कि हिलडुल न सके । प्रयोग के बाद भी न भोजन, न पानी, न हवा, न दवा; बेचारे तड़प-तड़प मर गये।
एक कोमल खरगोश के कानों में नाइट्रिक एसिड जैसा तेजाब-तेज रसायन डाल दिया गया । वह बुरी तरह तड़प उठा, प्राण बचाने के लिए कहाँ भागता । रसायन-प्रयोग से कान के पास की नसें उभर आई । महाशय ने चाकू निकाल, उभरे हिस्से में घुसेड़ दिया । रक्त तेजी से बह निकला, बोतलें भरी गई। खरगोश की देह का सब रक्त निकल गया तो उसे चीमटे में दाब कर इस तरह फेंक दिया गया, जैसे नींबू का रस निचोड़ने के बाद छिलके को फेंक दिया जाता है।
जीवित खरगोश को मारकर उसकी आँत निकाल ली जाती है। उस पर नवनिर्मित दवाइयों का प्रभाव देखा जाता है। कुत्ते के दिल, मेंढक के दिल, कबूतर के दिल और गिनीपिग के गर्भाशय में भी दवाओं के प्रभाव देखे जाते हैं। इन परीक्षणों के समय मार्मान्तक पीड़ा होती है। शारीरिक प्रतिक्रियाओं की जाँच के लिये चूहे, खरगोश, मेंढक, बन्दर आदि के सिर, हाथ, पाँव में डंडे मारते हैं, उछालते हैं, पूछ पकड़कर खींचते हैं, शिकंजों में कसकर दबाते हैं। यह क्या कम यातनाएँ हैं ? खरगोश आदि की चाल को छीलते हैं, छीले हुए स्थान पर सुइयाँ चुभोते हैं कि वह चिल्लाता है या नहीं। अंधी कोठरियों में ये सब क्रूर प्रयोग किये जाते हैं। .. यद्यपि विदेशों में इस प्रकार के घातक प्रयत्नों को रोकने के लिए कानून बने हुए हैं, फिर भी वहाँ की सरकार की ओर से डाक्टरों और विशेषज्ञों को संरक्षण दिया जाता है। भारत में भी प्राणियों के प्रति क्रूरता-निवारक कानून बने हुए हैं फिर भी विज्ञान के विकास के नाम पर लोग पशुओं की हत्या करते हैं।
पिछले ७० वर्षों से अमेरिका आदि देशों में कुछ दयालु डाक्टरों की ओर से एण्टी विविसेक्शन मण्डल बनाकर ऐसे प्राणिघातक प्रयोगों को बन्द करने के प्रयास चालू हैं। ... अमेरिका की नेचुरल हाइजिनिक सोसाइटी ने रहस्योद्घाटन किया है कि पशु के अंगों से तैयार की जाने वाली दवाएँ तत्काल भले ही कुछ लाभ पहुँचा दे, मगर बाद में लकवा, केसर, स्नायु-विघटन जैसे रोग उत्पन्न करने का कारण बनती हैं। घोड़े से बनाये गये सीरम का उपयोग करने वाले रोगी बहुत बड़ी मात्रा में लकवे के शिकार हुए हैं।
अतः अब विदेशों में और भारत में प्राणिघात के प्रयोगों के सिवाय अन्य वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग प्रारम्भ हो चुका है। मैंने “जैन जगत्" में स्व० मानकरजी
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