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________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ७१ बन-ठनकर जीना चाहता है। किन्तु न तो वह सच्चे माने में बाबू बन पाता है, न ही सुखी जीवन जी सकता है । शेखचिल्ली की तरह वह झूठा सुख-स्वप्न देखता है । जिसे एक बार जूए की लत लग जाती है, फिर किसी के रोके वह रुकता नहीं। जूए या सट्टे की लत उसे मृगतृष्णा की तरह अर्थप्राप्ति की आशा जगाती रहती है, और जूए के व्यसन में मूढ़ बनकर अंधी दौड़ लगाता रहता है। जूए से एकाध बार कुछ धन प्राप्त हो जाता है, लेकिन उतना या उससे भी ज्यादा धन चला जाता है। जिसे एक बार जूए की आदत पड़ गयी वह राक्षसी की तरह उसके ऐसी चिपकती है कि जीवन का सारा सत्त्व चूसकर ही दम लेती है। इसलिये जूए से बेकारी निवारण का दावा करना व्यर्थ है। जूए में अधिकतर धन नष्ट होने पर मनुष्य बेकार ही नहीं, बेइज्जतदार, बेकरार और बेरोजगार भी हो जाता है। कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता, न कोई उसे अपना धन देकर रोजगार-धंधा दिलाता है, न ही कोई उसे अपने यहाँ नौकर रखना पसंद करता है। समाज में वह अप्रतिष्ठित, अविश्वस्त हो जाता है। इस प्रकार जए से भौतिक धन के अतिरिक्त जीवन-धन, सम्मानधन एवं चरित्रधन आदि सभी धन नष्ट हो जाते हैं । एक आचार्य ने कहा है श्रियस्तत्र न तिष्ठन्ति, यत्र द्यूतं प्रवर्तते। न वृक्षजातयस्तत्र, विद्यते यत्र पावकाः ।। -जहां चारों ओर आग लग जाती है, वहाँ वृक्षों के झुंड नहीं टिकते; वैसे ही जहाँ द्य त की प्रवृत्ति होती है, वहां किसी भी प्रकार की 'श्री' नहीं टिक सकती। जूए के साथ लगे अन्य दुर्गण जूए में बराबर हारने पर भी जुआरी चेतता नहीं, वह जूए या सट्टे में बराबर प्रवृत्त होता है। कहावत है-'हारा जुआरी दुगुना खेले' यद्यपि हार जाने पर वह मुंह दिखाने लायक नहीं रहता, फिर भी वह ढीठ और निर्लज्ज बनकर बेहिचक जूए का दांव लगाता है । उसके परिवार वाले, समाज के हितैषी लोग उसे जूआ न खेलने के लिए बार-बार समझाते हैं, झिड़कते हैं, फटकारते हैं, फिर भी वह किसी की नहीं मानता, न किसी को कुछ गिनता है । वसुनन्दि श्रावकाचार में ठीक ही कहा है ण गणेइ इट्ठमित्तं, ण गुरु, ण य मायरं पियरं वा। जुवंधो वुज्जाइं कुणइ अकज्जाई बहुयाइं ॥ सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ णिल्लज्जो। माया वि ण विस्सासं वच्चइ जुयं रमंतस्स ॥ जुआ खेलने में अंधा मनुष्य अपने इष्टमित्र को कुछ नहीं गिनता, न गुरु को और न ही माता-पिता को कुछ समझता है । द्यू तासक्त मनुष्य स्वच्छन्द होकर पापमय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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