SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ७ उसकी वाणी में भी शहद का-सा मिठास था, इसलिए दूसरी जगह से न लेकर अधिक लोग उसी के यहाँ शहद लेने आते थे । जीवन की यह कला बाहर से असुन्दर मनुष्य को भी सुन्दर बना देती है। क्या हुआ उस सुन्दरता से, जो बाहर से सुन्दर होकर भी प्रकृति की कठोर हो, कर्कश हो, झगड़ाखोर हो ? बात-बात में झगड़ा करती हो, मामूली सी बात पर तन जाती हो, बच्चों पर थप्पड़ उठा लेती हो, हर बात में अपनी जिद पर अड़ी रहती हो, वह बाहर से चाहे सुन्दर हो, गोरी हो, परन्तु उसका हृदय कठोर, काला और असुन्दर है। जिन व्यक्तियों के पास रहने में ही डर लगता हो, उनमें और आग में क्या अन्तर है ? व्यक्ति चाहे घर में हो, बाजार में हो, दुकान पर हो या दफ्तर में, बस में हो या पैदल चल रहा हो, भाषण दे रहा हो या सुन रहा हो, किसी इन्टरव्यू पर जा रहा हो या भोजन आदि क्रिया कर रहा हो, सर्वत्र शिष्टाचार की कला काम आती है। एक दिन नेपोलियन 'सेंट हेलेना' में अपने साथी के साथ कहीं जा रहा था। सामने से एक मजदूर बोझा लिये आ रहा था। नेपोलियन का साथी अभिमान में आकर रास्ता नहीं छोड़ना चाहता था, यह देख भूतपूर्व सम्राट नेपोलियन ने कहा"बोझ का सम्मान कीजिए, रास्ते से एक ओर हट जाइए।" शिष्टाचार-कला से सम्पन्न व्यक्ति अपनी इस कला के बल पर सर्वत्र सम्मान पाता है ; आकर्षण का केन्द्र बनता है। कार्य में जान डाल देना ही कला है कार्य तो एक मजदूर भी करता है, पर केवल मजदूरी पाने की दृष्टि से; एक नौकर भी करता है, पर बेगार समझकर जैसे-तैसे पूरा करने की दृष्टि से; और घर में माँ भी करती है, पूरी तन्मयता के साथ, अपना समझकर। तीनों की दृष्टि में अन्तर है । कार्य करना और बात है और कार्य में जान डाल देना दूसरी बात है । कार्य छोटा है या बड़ा ? यह प्रश्न नहीं है । प्रश्न यह है कि मनुष्य ने इसमें कितना हृदय निचोड़ा है ? काया कितनी घिसी है ? एडिसन महोदय फोनोग्राफ तैयार कर चुकने पर भी सात महीने तक प्रतिदिन घंटों सुनते थे। 'गिब्बन' ने अपने संस्मरणों को नौ बार लिखा और अपने इतिहास के प्रथम अध्याय को १८ बार । ___ कार्य में जब शक्तियाँ बिखेरी नहीं जातीं, केन्द्रित की जाती हैं, तभी उसमें से कलादेवी झाँकने लगती है । उसमें परिमाण नहीं, परिणाम देखा जाता है, क्वांटिटी नहीं, क्वालिटी देखी जाती है। कार्य ऐसा हो, जो स्वयं बोल उठता हो, तभी वह कलात्मक कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy