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२१६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
धर्म-परिवर्तन कराना तो उनके सत्तामद का सबसे बड़ा सबूत है । यही ब्रिटिश शासन में था, तब अंग्रेज शासकों ने भारतीयों के साथ किया। वे अपने आपको प्रभु (Lord) समझते थे, जन वगैरह को उन्हें सम्बोधन भी 'My Lord' (मेरे प्रभु) से करना पड़ता था। उच्च पदाधिकारियों में अधिकांश अंग्रेजों की नियुक्ति करते थे। भारतीयों के साथ उनका व्यवहार भी सौतेला होता था । भारतीयों को वे असभ्य, जंगली एवं कुली समझते थे। उनका शासन था, इसलिए कोई भी भारतीय उनके विरुद्ध सिर नहीं उठा सकता था।
अंग्रेज प्रभुओं का भारतीय विद्वानों एवं संन्यासियों के प्रति कैसा रवैया था, यह एक घटना से साफ पता लग जायेगा
स्वामी विवेकानन्द एक बार ट्रेन से कहीं की यात्रा कर रहे थे। वे जिस डिब्बे में बैठे थे, उसमें दो अंग्रेज भी बैठे थे। भारतीय और गेरूआधारी संन्यासी को बैठे देख वे दोनों अपनी प्रभुता के मद में आकर उनके बारे में जितना भी अंट-संट कह सकते थे, अंग्रेजी में बोले । स्वामीजी चुपचाप सुनते रहे । इतने में स्टेशन आया। स्वामीजी ने स्टेशन मास्टर को बुलाकर अंग्रेजी में कहा-'कृपया थोड़ा पानी मंगवा दीजिए।' स्वामीजी को अंग्रेजी में धड़ल्ले से बोलते देख, दोनों अंग्रेज सहयात्री जरा झेंप गये। उनमें से एक ने स्वामीजी से कहा-"आप अंग्रेजी जानते है तो जब हम आपके बारे में कुछ अंट-संट बोल रहे थे, तब आप बोले क्यों नहीं ? क्या आपको हमारी बात सुनकर गुस्सा नहीं आया ?"
__ स्वामीजी ने मुस्कराकर कहा- "आप जैसे सभ्यताभिमानी लोगों ने अपनी सभ्यता छोड़ दी, पर मैं अपनी सभ्यता कैसे छोड़ देता ? इसलिए मैंने मौन रखना ही उचित समझा। मैं अपनी सहिष्णुता खोकर अपनी शक्ति क्यों खर्च करता ?"
दोनों अंग्रेज बहुत लज्जित हुए। उन्होंने स्वामीजी से क्षमा मांगी।
ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण हैं, ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति सौतेला व्यवहार रहा। प्रभुता के मद में वे भारतीयों की धर्मपुनीत संस्कृति, रीति को सहन नहीं कर सकते थे । जब भी दांव लगता, वे भारतीयों को अपमानित एवं तिरस्कृत करने से नहीं चूकते थे।
भारत के राजा-महाराजाओं का भी यही हाल था। वे अपने यहाँ सैकड़ों गोले-गोलियों को रखते थे, उनके साथ मनमाना एवं पशु का-सा व्यवहार करते थे । कोई भी उनके सामने चीं-चपड़ करता तो फौरन कोड़ों, जूतों और लाठियों से उसे पिटवाते । उसकी कोई सुनवाई नहीं होती थी। राजा जो कुछ कहदे, करदे वही न्याय, बाकी अन्याय । इस प्रकार राजा नामक प्रभुओं ने भी अपनी शक्ति के मद में आकर बहुत ही असहिष्णुता दिखाई। राजाओं के पास सशस्त्र सेना आदि अनेक साधन होते, लेकिन प्रजा बेचारी निहत्थी होती, उसे न्याय मिलना दुष्कर होता। मार-पीट एवं बेगार में काम लेने की आदत अधिकांश शासकों की थी। हिरण्यकश्यप, दुर्योधन, कंस आदि राजाओं की वृत्ति इसी प्रकार की रही ।
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